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चतुर्थ अध्याय क्योकि इतने लम्बे काल में एक भी समय ऐसा नही आया, जबकि द्वादशागी गणिपिटक का अस्तित्व न रहा हो। वह सदा काल विद्यमान रहा है। उपदेश की दृष्टि से भले ही हम यह कह सकते हैं कि जिस समय जो तीर्थकर होते हैं, वे द्वादशागी का उपदेश देते हैं, इससे सभी तीर्थकर उसके उपदेष्टा है, परन्तु निर्माता नही है। क्योकि अनादि काल से वह निर्वाध गति से प्रवहमान है। और सभी उपदेष्टाओ के चिन्तन मे एक रूपता होने के कारण उसमे बताया गया आचार और विचार रूप त्रैकालिक सत्य भी एक ही होता है। जैसे- आचार मे सामायिक-समभाव की साधना प्रमुख है और विचार में अनेकान्तस्याहाद या विभज्यवाद प्रमुख है। और आज तक हुए अनन्त-अनन्त तीर्थकरो ने इसी कालिक सत्य का उपदेश दिया है, द्वादशागी गणिपिटक का मूलाधार सामायिक और अनेकान्त-स्याद्वाद ही है । इस
कालिक सत्य के उपदेश की अपेक्षा से द्वादशागी गणिपिटक 'को अनादि-अनन्त कहाँ है । और जब उपदेश अनादि-अनन्त है तो उसके
namanan ___ काल से अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी की अपेक्षा से गणि पिटक सादि-सान्त है। क्योंकि उक्त कालचक्र में कुछ समय ऐसा, होता है, जिसमें तीर्थकर नही-होते. परन्तु जहां उक्त कालचक्र नही है, वहा की अपेक्षा से वह अनादि-अनन्त है।
भाव की अपेक्षा से तीर्थकर भगवान ने द्वादशागी गणिपिटंक की परूपणा की,गणधरो ने उसे धारण किया, अपने शिष्य-प्रशिष्यो को उसका उपदेश दिया, हेतु, दृष्टान्त, नय एव उपमा आदि के द्वारा समझाया, इसे अपेक्षा से वह सादि-सान्त है और क्षयोपशम भाव की अपेक्षा से वह संदा स्थित रहता है, अत. अनादि-अनन्त हैं।
:-नदीसूत्र,४२ (मूल सुत्ताणि), पृष्ठ, ३०९।