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तृतीय अध्याय
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नही घूमता है, जिसका चाक के साथ संबंध जुडा हुग्रा नही है । इसी तरह जिस ग्रात्मा के साथ द्रव्य और भाव कर्म का संबंध नही होता है, वह आत्मा कभी भी संसार में नही घूमती, जैसे मुक्त - सिद्ध जीव लेकिन ससारी - आत्मा ससार मे परिभ्रमण करती है, यत ऐसा मानना चाहिए कि द्रव्य और भाव कर्म का या कषाय, योग और कर्म पुद्गलो का ग्रात्मा के साथ सबंध होता है ।
सांख्य और जैन
जैन और साख्य दर्शन को मान्यता मे सबसे बड़ा मतभेद यह है, कि साख्य पुरुष - प्रात्म को कूटस्थ नित्य मानता है । इसलिए उसकी मान्यतानुसार पुरुष मे कोई परिवर्तन नही होता है । -वन्ध और मोक्ष भी पुरुष का नही, प्रकृति का होता है। शुभ-अशुभ कर्म का कर्ता भी पुरुष नही, प्रकृति है । जबकि जैन दर्शन ग्रात्मा को परिणामी नित्य मानता है. अथवा ग्रात्म पर्यायो मे भी परिवर्तन होता है । आत्मा का कर्म के साथ संबंध होता है और वह कर्म वन्व से मुक्त भी हो सकती है । इसका तात्पर्य यह है कि ग्रात्मा का वन्ध और मोक्ष होता है ।
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- इतना तर होते हुए भी दोनो दर्शनो की मान्यता मे साम्य भी है । पुरुष श्रीर प्रकृति की बात छोड़ दे तो कर्म बन्ध की जो प्रक्रिया है, वह जैन और साख्य की प्राय एक-सी है। जैन दर्शन मे राग, द्वेप, मोह आदि भावो के कारण पौद्गलिक कार्मण शरीर का श्रात्मा के साथ
नादि काल से संबध माना गया है। यह कार्य - कारण भाव सबंध वीजांकुर की तरह है। इसमे यह नही कह सकते कि पहले कौन है और पीछे कौन है । इस तरह सांख्य दर्शन मे भी लिंग शरीर का पुरुष के साथ अनादि काल से सवध माना है। और यह लिंग शरीर मोह, राग-द्वेष जैसे विकारी भावो से उत्पन्न हुआ है और इसका कार्य कारण