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प्रश्नों के उत्तर
www..........१७० मीमांसक दर्शन मीमासक दर्शन एक अपूर्व नाम के पदार्थ को स्वीकार करता है। उसका कहना है कि मनुप्य जो अनुष्ठान करता है, वह क्रिया रूप होने से क्षणिक-अनित्य है। इससे उन अनुष्ठान से एक अपूर्व नाम का पदार्थ उत्पन्न होता है, जो अनुष्ठान-यज्ञ-यागादि क्रिया का फल देता है। कुमारिल ने अपूर्व नाम की व्याख्या करते हुए कहा है--- अपूर्व अर्थात् योग्यता । आचार्य शंकर ने अपूर्व का खण्डन किया है और कहा है कि कर्म के अनुसार ईश्वर फल प्रदान करता है। और उसने इस बात को सिद्ध करने का प्रयत्न भी किया है कि कर्म से फल नहीं मिलता, परन्तु ईश्वर ही फल देता है। * ।।
कर्म बन्द के कारणो की इतनी विस्तृत व्यात्वा का निष्कर्ष यह रहा है कि सभी दार्गनिक राग-द्वेप-मोह को कर्म वन्ध का कारण मानते हैं। जैन जिसे द्रव्य कर्म कहते है, अन्य दार्शनिक उसे कर्म कहते हैं और उसी के ही सस्कार, वासना, अविज्ञप्ति, अपूर्व पदार्थ आदि नाम रखे है। यह कर्म पुद्गल द्रव्य है, गुण है, धर्म है या अन्य कोई स्वतन्त्र द्रव्य, इस विषय मे सभी दार्शनिको मे थोडा-बहुत मतभेद है, जिसे हमने देखा है । अव हम-द्रव्य कर्म के भेदो पर विचार करेंगे। . :. कर्म के भेद . . . .
कर्म के भेद की मान्यता में सभी विचारक एक मत नहीं है। फिर भी पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, कुगल-अकुशल, शुभ-अशुभ इस तरह कर्म के दो रूप तो सभी दार्शनिको ने माने हैं । जिस कर्म का फल अनुकूल या सुख रूप प्रतीत होता है, उसे पुण्य और-जिसका फल प्रतिकूल या दु.ख रूप प्रतीत होता है उसे पाप माना है। उपनिषद्, जन,
* ब्रह्म मूत्र (शाकरभाष्य), ३, २, ३८-४१.