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तृतीय अध्याय
होने पर भी पाप कर्म का बन्ध नही होता है । और उसके विपरीत कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष मे गरीर से किसी भी जीव की हिंसा करता हुआ दिखाई नही दे रहा है, परन्तु मन में किसी के प्रति कलुषित परिणाम लिए हुए है, तो वह पाप कर्म का वध कर लेता है। विशेषावश्यक भाप्य मे कहा है कि अशुभ परिणाम हिंसा है, चाहे उससे वाह्य रूप से जीवो की घात-हिंसा हो या न हो । और परिणामो मे विशुद्धता है तो वाह्य रूप से द्रव्य हिसा होने पर भी पाप कर्म का वध नही होता है ।-$ आगम मे भी यही कहा गया है कि अयतना पूर्वक चलने-उठने, खाने-पीने, वोलने आदि की, की जाने वाली क्रिया से छ, काय को हिसा एव पाप कर्म का वध होता है और यतना पूर्वक उक्त क्रिया करने में पाप कर्म का वध नहीं होता है । * इतना होते हुए भी वौद्धो ने जैनो पर जो यह आक्षेप किया है कि "जैन केवल काय दड को ही महत्त्व देते है," यह उनका भ्रम है और इस भ्रम का मुख्य कारण साम्प्रदायिक अभिनिवेश ही है, ऐसा मानना चाहिए । अन्यथा यह आक्षेप कोई मूल्य नही रखता है ।
जैनो की तरह बौद्ध भी मन को कर्म वध का प्रवल कारण मानते है । उपालिसुत्त मे मन को ही वध का मुख्य कारण कहा है। धम्मपद मे भी कहा है-- - "मनोपुच्चंगमा धम्मा मनोसेट्टा मनोमया ।
" मनसा चैव पदुन भासति वा करोति वा । .
...ततो न दुक्खमन्वेति, चक्कं.. व वहतो पदं ।।" * विशेषावश्यक भाष्य,१७६६ । * दुगर्वकालिक सूत्र, ४,१-७। '
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