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तृतीय अध्याय: -
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पर ही उदय मे आता है----फल देना प्रारम्भ करता है । अतः अवाधाकाल पर्यन्त सभी कर्मो का आत्मा के साथ सवध बना रहता है, इसे सत्ता कहते है । अत बधे हुए कर्म तवं तक सत्ता मे रहते है, जब तक उनका अबाधाकाल पूरा नही हो जाता है। - ३-४ उद्वर्तन और अपवर्तन
. - आत्मा के साथ कर्मो का बध होते समय कपाय की परिणति के अनुसार अनुभाग और स्थिति का बध होता है, परन्तु कर्म का अभिनव वव होते. समय कषाय की तीव्रता और मन्दता से उस अनुभागऔर स्थिति को अधिक और कम बना लेना क्रमश उद्वर्तन और अपवर्तन कहलाता है।
इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म की स्थिति और उसका रस नियत नहीं है । परिणामो की धारा को बदलकर हम बधे हुए कर्मों की स्थिति और अनुभाग-रस को कम या ज्यादा भी बना सकते है । बुरे कर्म करने के बाद शुभ कार्य करके या शुभ कर्म के बाद दुष्कर्म करके अशुभ या- शुभ कर्म को बद्ध स्थिति और अनुभाग को कम कर देते हैं और बुरा कर्म करने के बाद फिर दुष्कर्म करके या शुभ कर्म कर चुकने के पश्चात् फिर सत्कर्म करके अशुभ या शुभ कर्म की स्थिति और अनुभाग को बढा भी लेते है। .
५ संक्रमण एक कर्म प्रकृति के पुद्गलो को दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति के रूप मे वदलने की प्रक्रिया को सक्रमण कहते हैं। यह परिवर्तन मूल कर्मो मे नही होता, परन्तु मूल कर्मो को उत्तर प्रकृतियो मे होता है। उसमे भी कुछ अपवाद है। जैसे आयु कर्म की चार प्रकृतिया-१ नरक आयु, २ तिर्यञ्च आयु, ३ मनुष्य आयु और ४ देव आयु तथा मोह कर्म