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प्रश्नों के उत्तर
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स्थान नही है, जहा कर्म योग्य पुद्गल न हो अथवा सारा लोक कर्म योग्य पुद्गलो से भरा है। अत प्रत्येक स्थान मे स्थित जीव मन, वचन
और काया की प्रवृति से अपने निकट मे स्थित कर्म योग्य पुद्गलो को सभी दिशा-विदिशानी से ग्रहण करता है। जिस स्थान में जीव के आत्म प्रदेश स्थित है, उतने स्थान मे रहे हुए कर्म पुद्गलो को आत्मा ग्रहण करती है, यह कर्म ग्रहण की क्षेत्र मर्यादा है । परमाणुप्रो को सख्या की मर्यादा योगो की तरसमता पर आधारित है। योगो की प्रवृत्ति अधिक होती है, तो परमाणुओं की संख्या भी अधिक होती है और प्रवृत्ति स्वल्प होतो है, तो परमाणु भी अल्प सत्या मे पाते हैं। इस प्रक्रिया को जैन परिभाषा में प्रदेश वव कहते है।
आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए परमाणु ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियों के रूप मे परिणत होते हैं, उसे प्रकृति वध कहते है। योग की प्रवृत्ति से परमाणुगो की संख्या और ज्ञानावरणादि प्रकृतियो की व्यवस्था होती है, इस कारण इस प्रक्रिया को प्रदेश वध और प्रकृति बन्व कहते हैं। आत्मा वस्तुत अमूर्त माना जाता है , फिर भी कर्म संयोग के कारण उसे कथचित मूर्त भी माना गया है। क्योंकि आत्मा और कर्म का सवध दूध-पानी के सवध जैसा है। साक्ष्य ने भी ससारावस्था मे पुरुष और प्रकृति का मवध नीर-क्षीर जैसा माना है। नैयायिक-वैगेपिक ने भी धर्माधर्म का.आत्मा के साथ समवाय सबध माना है। इसी से वे एकीभूत दिखाई देते है, उण्हें पृथक करके वताना असंभव है। केवल लक्षण भेद से ही उन्हे आत्मा से पृथक समझ सकते हैं।
- योगों की प्रवृत्ति से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है । परन्तु उस के साथ कषाय की जो प्रवृत्ति होती है , उससे स्थिति और अनुभागरस बन्ध होता है। परिणामो मे कषाय की मन्दंता होती है, तो उन