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तृतीय अध्याय
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कर्मों का स्थिति और अनुभाग वध भी मन्द-- हल्का होगा और कपाय की तीव्रता होगी तो बंघ भी प्रगाढ होगा, परन्तु कपाय के प्रभाव मे ग्रात्मा के साथ कर्म परमाणुओं का वव नही होता है । जिस प्रकार सूखी दीवार पर रेती के परमाणु नही चिपटते है, उसी तरह कषाय रहित आत्मा पर कर्म रज भी नही चिपटती है । कर्मो का बन्ध कपाय युक्त योग प्रवृत्ति से होता है । उस का स्थिति और अनुभाग aa भी कपाय से होता है । परन्तु इसमे ग्रन्तर इतना ही है कि प्रदेश और प्रकृति वंध कपाय युक्त योग प्रवृत्ति से होता है और स्थिति एव अनुभाग बंध कपाय युक्त परिणामो से होता है ।
योग दर्शन मे भी क्लेश रहित योगी के अकृष्णागुक्ल कर्म माना है अर्थात् उसके शुभाशुभ कर्म का वन्ध नहीं होता । वौद्धी ने ग्रर्हत मे क्रिया चेतना स्वीकार करके कर्म बन्ध का निषेध किया है । इनकी क्रिया चेतना का रूप जैनो को इर्यापथ क्रिया से मिलता-जुलता है ।
इस तरहे चार प्रकार से कर्म का वन्ध माना है । परन्तु बन्धा हुआ कर्म तुरन्त फल देता हो, ऐसी वात नही है । वह अपने समय पर फल देता है । जिस प्रकार ग्राग पर भोजन सामग्री चढाते ही नही पक्क जाती, उसमे कुछ समय लगता है । इसी तरह कर्म का पाक काल पूरा होने पर ही कर्म अपना फल देता है । इसे जैन परिभाषा मे 'प्रवाधाकाल' कहते हैं । अवाधाकाल पूरा होने पर ही बधे हुए कर्म परमाणु फल देने को तत्पर होते हैं, इसे कर्म का उदय काल कहते है । उदय में आए हुए कर्म फल देकर आत्मा से अलग हो जाते है और तप-सयम के द्वारा भी पूर्व मे बंधे हुए कर्मों को आत्मा से अलग किया जाता है, इसे निर्जरा कहते है । और ग्रात्मा से समस्त कर्मों को सर्वथा अलग कर देने को मोक्ष कहते है ।
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