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प्रश्नो के उन्नर
आत्मा और कर्मों के सवध मे है।
कर्म आत्मा के अस्तित्व को समाप्त करने में मर्वथा असमर्थ है। प्रात्मा कर्म के प्रभाव में इतनी ही प्रभावित होती है कि जब तक कों का प्रवाह प्रवहमान रहता है, तब तक वह कर्ममय दिखाई देती है। जैसे प्राग के प्रभाव से प्राकाश अमूर्त होते हुए भी काले, पीले, लाल आदि कई रगो मे दिखाई देता है, उसी तरह कर्म के प्रभाव से प्रात्मा भी किरकट की तरह अनेको रग बदलता हुया परिलक्षित होता है। . परन्तु कर्म का स्रोत सूखते ही प्रात्मा अपने शुद्ध रूप मे आ जाता है। अनन्त-अनन्त काल तक कम के प्रभाव मे रहकर भी उसके शुद्ध प्रात्म स्वरूप मे जरा भी परिवर्तन नहीं पाता है। अस्तु कर्म आत्मा को बाह्य रूप से प्रभावित करता है, परन्तु वह उसे अपने या अन्य रूप मे परिवर्तित नही कर सकता है।
दूसरी बात यह है कि प्रात्मा का ज्ञान गुण अमूर्त है और गराव मूर्त है । जव मनुप्न शराब का सेवन करता है तो वह ज्ञान एव चेतना को ढक लेती है, थोडी देर के लिए मनुष्य अपने ज्ञान एव चेतना को खो बैठता है। तो इस तरह देखा जाता है कि अमूर्त पदार्थ भी मूर्त पदार्थो से प्रभावित होते हैं । ___एक वात और भी है, वह यह है कि जैन दर्शन आत्मा को कथचित् मूर्त भी मानता है। ससारी जीव अनादि काल से कर्म के आवरण से आवृत्त होने के कारण ससार मे एक योनि से दूसरी योनि मे परिभ्रमण करते हैं तथा सशरीर होते है। शरीर मूर्त ही होता है और प्राण युक्त शरीर को व्यवहार मे आत्मा का प्रतीक मानते हैं । इस अपेक्षासे उन्हे मूर्त भी कहा गया है और मूर्त कर्म ससारी जीवो को ही प्रभावित करता है, जो उसके वन्धनो से आवद्ध हैं। . .