________________
तृतीय अध्याय .
AAV
१७१
,
साख्य, बौद्ध, योग, न्याय-वैशेषिक आदि सभी दर्शनो ने यही परिभाषा स्वीकार की है । और सभी दार्शनिको ने पुण्य हो या पाप दोनो से छुटकारा पाना ही ग्रात्मा का लक्ष्य माना है । इसलिए पुण्य कर्म जन्य अनुकूल वेदना को भी ज्ञानी पुरुषो ने सुख रूप नही, वल्कि निश्चय दृष्टि से दुख रूप ही माना है । तात्पर्य यह है कि कर्म जन्य सुख मुख नही, दुख ही हैं, क्योकि उसके पीछे जन्म-मरण का दुख लगा
हुआ है
पुण्य और पाप
1
कर्म के इन दो भेदो को सभी विचारको ने माना है । कर्म की शुभ और अशुभ दृष्टि को सामने रख कर बौद्ध $ और योग दर्शन के ग्रन्थो मे चार भेद किए है, शुक्ल, कृष्ण, शुक्लकृष्ण और अशुक्लाकृष्ण । पुण्य को शुक्ल, पाप को कृष्ण, पुण्य-पाप युक्त कर्म को शुक्ल कृष्ण और पुण्य-पाप रहित कर्म को अशुक्लाकृष्ण कर्म कहते हैं। कर्म का चौथा भेद वीतराग पुरुषो मे पाया जाता है । उनमे राग-द्वेष का प्रभाव होने से वे पुण्य और पाप के सवेदन से सर्वथा रहित हैं ।
इसके अतिरिक्त बौद्धो ने कृत्य, पाकदान, पाककाल की दृष्टि से प्रत्येक के चार-चार भेद करके १२ भेद माने है । और अभिधम्मत्थसंग्रह मे - पाकस्थान की अपेक्षा से ४ भेद और बढा दिए है | $ योग दर्शन मे बौद्धों की तरह कर्मों की गणना तो नहीं की गई है, फिर भी उसमे इस पर विचार किया गया है। इतना होने पर भी कर्म के
- दीघनिकाय, ३, १,२ ।
पातञ्जल योग दर्शन, ४, ७ । विमुद्धिमग्ग १९,१४-१६ । - ९ अभिधम्मत्य संग्रह, पृ. १९ ।
}