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तृतीय अध्याय
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जीव मे जो रागादि भाव हैं, वे पुद्गल कृत हैं और कार्मण शरीर भो . पुद्गल कृत है, फिर भी दोनो मे मौलिक भेद है । रागादि भावो का उपादान कारण आत्मा है और निमित कारण- पुद्गल है, तो कार्मण शरीर का उपादान कारण पुद्गल और निमित कारण ग्रात्मा है । सांख्य का कहना है कि प्रकृति जड होने पर भी पुरुष के ससर्ग से चेतन की तरह प्रवृत्त होती है । जैन भी पुद्गल को जड़ मानते हुए ऐसा कहते हैं कि जब पुद्गल आत्मा से सवद्ध होकर कर्म रूप वन जाता है, तब वह चेतन की तरह कार्य करने लगता है । जैन ससारी - आत्मा और शरीर, कर्म आदि जड पदार्थों का सुवध क्षीर-नीर वत् मानते हैं । सांख्य भी पुरुष और शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि आदि का सवध क्षीरनीर वत् स्वीकार करते हैं ।" दोनो दर्शन कर्म बन्ध या फल भोग मे ईश्वर जैसी किसी शक्ति का माध्यम नही मानते है । अस्तु साख्य दर्शन भी कर्म बन्ध की प्रक्रिया जैनों की तरह ही मानता है ।
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बौद्ध दर्शन
बौद्धों ने भी जीवो की विचित्रता कर्म कृत मानी है । वे कर्म की उत्पत्ति मे लोभ (राग), द्वेष और मोह को कारण मानते हैं । राग, द्वेप और मोह युक्त होकर जीव-सत्व मन, वचन और काया की प्रवृत्ति करता है और उससे फिर राग-द्वेष-मोह उत्पन्न होता है । इस तरह ससार चक्र चलता है और इस प्रक्रिया को अनादि माना है । विसुद्धिमग्गं में नागसेन ने कर्म को अरूपी कहा है । वौद्ध परिभाषा मे उसे वासना और अविज्ञप्ति कहा है । मानसिक क्रियाजन्य सस्कार- कर्म को वासना और वचन एवं काया जन्य सस्कार को विज्ञप्ति कहा गया है । वौद्धो ने जो कर्म का कर्तृत्व और भोक्तृत्व तथा कर्म को अनादि माना है, वह सन्तति की अपेक्षा से माना है ।