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तृतीय अध्याय
२ दर्शनावरणीय कर्म
ग्रात्मा आत्मा के दर्शन गुण को आवृत्त करने वाले कर्म को दर्शनावरण कर्म कहते हैं । इसे राजा के द्वारपाल की उपमा दी गई है । द्वारपाल चाहे तो किसी व्यक्ति को राजा के दर्शन करने से रोक भी सकता है । उसी तरह उक्त कर्म का उदय रहता है, तव ग्रात्मा अपने स्वरूप का दर्शन नही कर पाता । दर्शनावरण कर्म भी आत्मा मे स्थित अनन्त दर्शन को सर्वथा आवृत्त नही करता है । दर्शन ४ प्रकार का है१ चक्षुदर्शन, २ प्रचक्षुदर्शन, ३ अवधिदर्शन और ४ केवलदर्शन । दर्शनावरण कर्म के नव भेद किए है । वे इस प्रकार है- १ चक्षुदर्शनावरण, २ चक्षुदर्शनावरण, ३ अवधिदर्शनावरण, ४ केवलदर्शनावरण ५ निद्रा, ६ निद्रा-निद्रा, ७ प्रचला, ८ प्रचलाप्रचला और ९ स्त्यानद्ध निद्रा ।
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- ३ वेदनीय कर्म
इस कर्म के उदय से आत्मा मे सुख-दुख का सवेदन होता है । इस कर्म को मधु से लिप्त तलवार की उपमा दी है । ससारिक सुख उक्त मधु के समान है, जो मधुर स्वाद की अनुभूति कराने के साथ जिह्वा को भी काट देता है । अथवा ससारिक सुखो के पीछे दुख का अथाह सागर ठाठे मार रहा है । वेदना दो प्रकार की होती है- सुख रूप और दुःख रूप । इसलिए वेदनीय कर्म भी दो प्रकार का माना है१ साता वेदनीय - सुख रूप औौर २ श्रसाता वेदनीय - दुख रूप । ४ मोहनीय कर्म
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यह ग्रात्मा के सम्यक् दर्शन और चारित्र अर्थात् आत्मा के मूल गुण का रोधक है । इस कर्म को मद्य की उपमा दी गई है । जैसे मद्य का नगा कर लेने पर मनुष्य अपनी चेतना को खो बैठता है, उसी
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