________________
तृतीय अध्याय
त्याग आदि कार्य करने से जरा भी पुण्य नही होता है। $ अक्रियावादियो के मत का इसी तरह का वर्णन जैनागमों मे भी मिलता है । ६
- गौचालक एव. काश्यप का मत एक दूसरे के काफी निकट है। दोनो कर्मवाद को अस्वीकार करते हैं। दोनो की मान्यता है कि आत्मा पुण्य-पाप कुछ नहीं करता है। न व्यभिचार करना पाप है और न दान, गोल, तप आदि सत्कार्य करना धर्म है । जो कुछ होना है वही होता है, किसी तरह का पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नही है । दोनो की समान मान्यता के कारण ही काश्यप के शिष्य उसकी मृत्यु के बाद गोशालक के मत मे मिल गए थे।
- अज्ञानवाद . इस मत का प्रवर्तक सजय वेलट्ठीपुत्र था,। यह न नास्तिक था और न इसे आस्तिक ही कहा जा सकता है। इसे हम तर्कवादी कह सकते हैं । ..इसने परलोक, नरक, स्वर्ग, कर्म, निर्वाण जैसे अदृश्य पदार्थो के सबध मे स्पष्ट शब्दो मे कहा कि इनके लिए न. निपेध की भाषा मे कहा जा सकता है और न स्वीकार की भाषा मे तथा न उभय रूप से कहा जा सकता हैं और न अनुभव रूप से ।
भगवान महावीर ने स्याद्वाद के द्वारा वस्तु के अनेक रूप युक्त होने को सिद्ध कर दिया है । परन्तु जव मनुष्य के मन मे सशय होता
$ बुद्ध चरित्र (कौशावी) पृ १७०। 8 कुव च कारय चेव, सव्वं कुव्वं न विज्जई। एव अकारो अप्पा, एव ते उ. पगन्मिना ।
--सूत्र कृताग १, १, १, १३. * बुद्ध चरित्र (कौशावी) पृ..१७८ ।