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प्रश्नों के उत्तर
१६०० जैन आगमो में विस्तार से मिलता है। वौद्ध ग्रन्थो मे पूरण काश्यप और मखली गौशालक के मतो का उल्लेख है। जैनागमो मे पहले मत को अक्रियावाद और दूसरे को नियतिवाद बताया है । दोनो नामो मे अन्तर है, परन्तु मान्यता में काफी साम्य है । वौद्ध ग्रन्थो मे गौगालक की मान्यता का उल्लेख इस प्रकार किया है- “प्राणियो की पवित्रता और अपवित्रता का न कोई कारण है और न हेतु ही। अपने पुरुषार्थ से कुछ नही होता है । किसी कार्य के होने में पुरुप का कोई पराक्रम, वल, वीर्य, शक्ति प्रादि निमित नही है। सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी जीव निर्बल हैं, वीर्य रहित हे। वे सब नियति-भाग्य, जाति वैशिष्टय और स्वभाव से बदलते है। ८४ लाख महाकल्प का भ्रमण करने के वाद अच्छे और बुरे दोनो तरह के प्राणियो के दुखों का नाश हो जाता है । कोई व्यक्ति ऐसा कहे कि शील, व्रत, तप और ब्रह्मचर्य से अपरिपक्व कर्मो को परिपक्व बना लूगा तथा परिपक्व कर्मों को भोग कर शून्यवत् कर दूगा तो ऐसा होने का नही है ।
पूरण काश्यप का कहना है कि किसी ने कोई कार्य किया है, करवाया है, किसी को किसी ने काटा है, कटवाया है, किसी को त्रासदुख दिया है, दिलवाया है, इसी तरह प्राणियो का वध, चोरी, व्यभिचार आदि पाप कार्य किए है, या करवाये है तो उस करने या करवाने वाले व्यक्ति को पाप नही लगता है। तीक्ष्ण चाकू या तलवार ले कर कोई व्यक्ति पृथ्वी पर मांस का ढेर लगा दे, तब भी उसे जरा भी पाप नहीं लगेगा। गंगा नदी के दक्षिण किनारे जा कर कोई मार-काट , करे या अन्य दुष्कर्म करे, तो उसे जरा भी पाप नही लगता है और गगा के उत्तरी तट पर जाकर कोई दान देवे या दिलवाए, यज्ञ करे या करवाए, तो उसे जरा भी पुण्य नही होता है । दान, धर्म, सयम, सत्य,
$ वुद्ध चरित (धर्मानन्द कोशावी) पृ १८१। '