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तृतीय अध्याय
और यज्ञ-याग आदि नित्य नैमित्तिक क्रियाओं को कर्म कहा गया है | जैनो ने भी कर्म का अर्थ क्रिया माना है, परन्तु उन्होने केवल इसी अर्थ को ही नही स्वीकार किया । ससारी जीव की प्रत्येक किया तो प्रवृत्ति है ही, परन्तु उस क्रिया के पीछे स्थित जो परिणामो - विचारो का प्रवाह है, उससे पुद्गल द्रव्य आत्मा के साथ सवद्ध हो जाते है, इस वन्धन को भी जैन परिभाषा मे कर्म कहते है प्रकार के है. १ द्रव्य कर्म और २ भावकर्म |
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आत्मा की क्रिया अर्थात् परिणाम की धारा यह भावकर्म है और उस क्रिया से ग्रावद्ध होने वाले पुद्गल द्रव्य कर्म है । क्योकि परिणामों द्वारा संग्रहित कर्म जीव को कार्य मे प्रवृत्त करते है, अत आत्मा के साथ सबद्ध होने वाले पुद्गलो को भी कर्म कहते हैं । क्रिया और कर्म कां परस्पर कार्य-कारण भाव सवध है और यह सवध कबूतरी श्रीर उसके अडे के समान अनादि है । परन्तु इनका अनादि सवध सन्तति की अपेक्षा से । भाव क्रिया से द्रव्य कर्म उत्पन्न होता है । इसलिए भाव क्रिया कारण और द्रव्य कर्म उसका कार्य है । परन्तु यदि द्रव्य कर्म का प्रभाव हो तो फिर भाव क्रिया की निष्पति भी नही हो सकती, जैसे सिद्धावस्था मे द्रव्यं कर्म नही है तो वहां भाव क्रिया भी उत्पन्न नही होती थवा दोनो का प्रभाव होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भाव क्रिया की उत्पत्ति मे द्रव्य कर्म कारण है ।
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यह प्रश्न हो सकता है कि भाव कर्म ससारिक आत्मा की प्रवृत्ति या क्रिया है, तो वह कौन-सी क्रिया या प्रवृत्ति है, जिससे द्रव्य कर्म का वन्ध होता है? क्रोध, मान, माया और लोभ, जिन्हें जैन परिभाषा मे कपाय कहते है । आत्मा के ये वैभाविक परिणाम या मनोविकार ही भावकर्म है अथवा आत्मा मे राग-द्वेष और मोह की जो परिणति