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प्रश्नो के उत्तर
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है और उसे ठीक समाधान नही मिलता या वह दूसरे के द्वारा स्वीकृत संत्य-तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नही होता है, तव अज्ञानवाद . की ओर झुकता है। इसलिए सूत्रकृताग सूत्र मे यह कहा गया है कि अज्ञानवादी तर्क करने मे कुगंल -प्रवीण होते हैं, परन्तु उनके बोलने का गसद्ध होता है । वह स्वयं सशय रहिन नही हुए अथवा उन्हें अपनी मान्यता पर भी सदेह रहा हुया है । वे स्वयं अज्ञानी हैं और भोले-भाले लोगो मे ग्रज्ञान फैलाते हैं, उन्हें गलत ढंग से समझाते हैं । जैनों का समन्वयवाद
जनो ने भी काल, स्वभाव, नियति पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ आदि को माना है । परन्तु किसी कार्य के होने मे किसी एक को ही नही माना है । उन्होने इन पाचो के समन्वय को माना है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है कि इन पांचो कारणो ं मे से किसी एक कारण को स्वीकार करना और शेष कारणो का तिरस्कार करना मिथ्यात्व है और कार्य की निष्पत्ति मे पाचो का समन्वय मानना सम्यक् धारणा है । * श्राचार्य हरिभद्र सूरी ने भी यही बात कही है । $ इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैनो ने केवल कर्म या पुरुषार्थ को ही नही माना है । उन्होने मुख्य गौण भाव से पाचो कारणो को स्वीकार किया है । कर्म का स्वरूप
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साधारणत कर्म का शाब्दिक अर्थ क्रिया होता है । वेदों से ले कर ब्राह्मण काल तक के वैदिक ग्रन्थो मे इसी अर्थ को माना गया है
* कालो सहाव णियइ पुन्वकम्म परिसकारणगता । मिच्छत त चेव' उ ' समास हुति सम्मतें ॥
§ शास्त्रवार्ता समुच्चय, २, ७९-८०
--पष्ठ द्वात्रिंसिका