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तृतीय अध्याय
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को अनादि माना गया है और इस मान्यता के लिए भी वह कर्म सिद्धात की प्रभारी है, यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है । जैनागमो मे स्पष्ट रूप से कहा गया है. कि प्रात्मा जो वार वार जन्म-मरण करती है, उसका मूल कारण कर्म है और वे आत्मा के साथ अनादि काल से लगे हुए है । अत जब तक कर्म का संबंध चालू है, तब तक आत्मा की मुक्ति होना असंभव है । इस तरह ससार को अनादि मानने का सिद्धांत प्राय सभी वैदिक दर्शनो ने बाद मे स्वीकार किया है ।
जैन परपरा ने सदा कर्मवाद को महत्त्व दिया है । इस परपरा मे देववाद को जरा भी महत्त्व नही दिया गया है । आत्मा के विकास एव पतन मे किसी भी वाह्य शक्ति का हाथ नही है । देव तो क्या ईश्वर भी न किसी का उत्थान कर सकता है और न किसी को पतन के महागर्त मे ही गिरा सकता है । यह सारी शक्ति आत्मा मे है । अत हमें कर्म सिद्धांत की जो विस्तृत एव गहरी व्याख्या जैन ग्रन्थो मे उपलब्ध होती है, वैसी ग्रन्यत्र उपलब्ध होनी दुर्लभ है । एक जीव के आध्यात्मिक विकास के प्रारंभ से लेकर अन्त तक के सौपान तथा इसी तरह पतन के मार्ग मे कर्म किस तरह कार्य करता है और इस दृष्टि से कर्म का कितना वैचित्र्य है, इसका विशद विवेचन जैन परम्परा के सिवाय अन्यत्र नही मिलता है । अत विद्वानो एव दार्शनिको ने इस बात को निसदेह माना है कि कर्मवाद की मान्यता का मूल स्रोत (Source) जैन परम्परा मे उपलब्ध होता है । और पीछे की सभी वैदिक परम्पराओ पर जैन कर्म सिद्धात का ही असर है।
कालवाद
कर्म के स्वरूप का वर्णन करने के पहले इस बात पर विचार कर लेना भी उपयुक्त होगा कि उस समय के विचारको ने कर्म के स्थान
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