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तृतीय अध्याय
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है, जहा पहुच कर वह अनन्त सुख-शाति का अनुभव करती है। अत.. आत्म गाति प्राप्त करने के लिए सवर अत्यावश्यक है । यह आत्मा की शुद्ध चेतना को प्रकट करने का साधन है। .
बन्ध तत्त्व आत्म प्रदेशो के साथ कर्मवर्गणा के पुद्गलो का सबंध होने का नाम बध है । वन्ध का अर्थ मिलन यां सयोग है । परन्तु यह टेबल
और उस पर स्थित घडी का-सा सयोग नहीं है। यह एक ऐसा मिलनमिश्रण है, जिससे द्रव्य मे एक तरह का रासायनिक (Chemical) परिवर्तन होता है । इस परिवर्तन से दोनो द्रव्यो मे कुछ विकृति आ जाती है। इस तरह का मेल होने पर दोनो द्रव्यों के निजी स्वरूप में कुछ परिवर्तन या विकृति आ जाती है । इस तरह आत्म प्रदेशो के साथ कर्म का सयोग होने पर आत्मा केवल अपने स्वरूप मे नही रह पाती, उसमे कुछ विकृति या जाती है। परन्तु इतना होने पर भी
आत्मा एव पुद्गल दोनों अपने शुद्ध स्वरूप को खो नही बैठते है। अनन्त काल तक आत्मा एव कर्म का सवध रहने पर भी दोनो अपने अस्तित्व को कायम रखे रहते है । यह सत्य है कि दोनो मे विकृति आ जाती है, परन्तु फिर भी प्रात्मा अनात्म या पुद्गल रूप मे तथा पुद्गल आत्मा के रूप मे नही बदलते है । क्योकि आत्मा एव पुद्गलो का सवध ससार अवस्था मे अनन्त काल तक रहता है, कई अभव्य जीवो का अनन्त-अनन्त काल तक रहेगा अथवा यो कहिए वे कभी भी कर्म पुद्गलो के बन्धन से मुक्त नहीं हो सकेगे, फिर भी वह सबध नित्य एव स्थिर नही है। प्रवाह की दृष्टि से भले ही हम कहदे कि भव्य जीव अनन्त काल तक और अभव्य जीव सदा कर्मों के साथ सवद्ध रहते हैं, परन्तु वास्तव मे देखा जाए तो इनका सवध अस्थायी ही है । क्योकि