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तृतीय अध्याय
परिणामो ( विचारो ) को भाव-वन्ध भी कहा है । 1 फिर इसे भावास्रव कैसे कहा गया है? इसे यो समझना चाहिए कि प्रथम क्षणभावो परिणाम कर्मों को खीचने की कारणभूत योग प्रवृत्ति में सहायक होते हैं, प्रत उन्हे भावास्रव कहते हैं और अग्रिमक्षणभावी परिणाम बन्ध मे कारण होने से उन्हे भाव बन्ध कहा है । क्योकि भावास्रव या परिणाम जितने तीव्र, मन्द और मध्यम होते है, तद्रूप ही कर्म आते है और आत्म प्रदेशो के साथ उनका वन्ध होता है ।
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आस्रव का दूसरा नाम योग भी है । आस्रव के पाच भेदो मे योग का भी उल्लेख मिलता है। योग तीन माने गए हैं - १ मन, २ वचन, और ३शरीर । मिथ्यात्वादि सभी प्रवृत्तियो के साधन मानसिक, वाचिक और कायिक योग ही है । इन्ही के द्वारा प्रत्येक आत्मा सोचता- विचारता, बोलता एव कर्म करता है । अत योग आस्रव का मुख्य कारण होने से आस्रव को योग भी कहते है ।
आस्रव शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का है । शुभ को पुण्य और अशुभ को पाप कहते हैं । इन दोनो को आस्रव के अन्तर्गत गिनने से सात तत्त्व होते हैं और अलग गणना करने से तत्त्वो की सख्या नव बनती है | आगम परम्परा मे नव तत्त्व माने गए हैं और तत्त्वार्थ सूत्र मे सात तत्त्वो का उल्लेख मिलता है । परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से दोनो परम्पराम्रो मे कोई मतभेद नही है । मात्र सख्या गिनने की प्रक्रिया मे ही अन्तर है ।
- ग्रास्रव भी एकान्त रूप से त्याज्य नही है । शुभास्रव साधक अवस्था मे उपादेय है और सिद्ध अवस्था मे त्यागने योग्य है' पर अशुभ प्रात्रव एकान्तत त्यागने योग्य है ।
+ परिणामे बन्ध ।