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प्रश्नो के उत्तर
१५४ पूर्व मे वध कर्म वर्गणा के पुद्गल यात्म प्रदेगो से हटते रहते हैं और दूसरे नए कर्म पुद्गल आते रहते है । अस्तु कर्म पुद्गलो का आत्म प्रदेशो के साथ मिलन-मेलन एव बिछुड़न साथ-साथ होता रहता है। इससे यह स्पप्ट हो गया है कि कर्मों का वन्ध स्थायी नही है । यदि वन्ध को स्थायी मान लिया जाए, तो फिर जीव कभी भी मुक्त नही हो सकेगा । अस्तु कर्म वध से आत्मा मे विकृति आती है, कभी-कभी वह अपने स्वरूप को भूल भी जाती है, परन्तु उसका निजी अस्तित्व कभी भी समाप्त नहीं होता, विकृति आने पर भी वह अनात्म अवस्था को कभी भी प्राप्त नहीं होती है।
कर्म बन्ध के कारण ही जीव ससार मे परिभ्रमण करता है और विविध गतियो-एव योनियो मे अनेक तरह के सुख-दुख का भी सवेदन करता है। जीवन के उत्कर्ष एव अपकर्ष मे कर्म का बहुत बडा हाथ है । जैन विचारको ने जीव के उत्थान एव पतन का मूल कारण कर्म को माना है और साथ मे यह भी माना है कि प्रत्येक ग्रात्मा शुभ या अशुभ कर्म करने एव तोडने मे स्वतन्त्र है। आत्मा स्वय ही कर्म का कर्ता एन भोक्ता है तथा कर्म बन्धन तोड़ने वाला भी स्वय ही है । सारी ससार व्यवस्था कर्म पर ही आधारित है । जैन दार्शनिको (Jain Philosophers) ने कर्मवाद का वड़े विस्तार एव गहराई से विश्लेषण किया है। भारतीय - सस्कृति के अन्य विचारको ने भी कर्मवाद पर कुछ सोचा-विचारा है । हम यहा तुलनात्मक दृष्टि से भारतीय-सस्कृति के सभी चिन्तको के कर्म सवधी चिन्तन-मनन पर विचार करेंगे।
कर्म विचार का मूल वैदिक युग में कर्मवाद पर जरा भी नहीं सोचा गया। इससे हम