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प्रश्नों के उत्तर
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समाप्त नही होता। इसी तरह अनन्त भी एक ऐसी संख्या है कि उसमे से अनन्त निकाल लेने पर भी उसका अत नही आता । अतः जीवो को अनन्त मान लेने से कोई दोष नही आता । इसलिए अनुभव यह सिद्ध हो गया हैं कि जीव एक नही, अनन्त ही है । आत्मा का परिमाण
से
आत्मा के आकार के संबध मे उपनिषदों में अनेक कल्पनाएं दिखाई देती हैं । इन सब परिकल्पनाओ के बाद सभी ऋषियों का झुकाव जीव को व्यापक मानने की ओर रही है । इस तरह अधिकाश वैदिक दर्शन-जीव को व्यापक मानने के पक्ष में हैं । रामानुजाचार्य आदि कुछ विचारक जिन्होंने आचार्य शंकर के बाद ब्रह्म सूत्र की व्याख्या की है, उन्होने ब्रह्म-आत्मा को व्यापक और जीव-आत्मा को
माना है । चार्वाक चैतन्य को देह परिमाण मानता है और वौद्धो ने भी पुद्गल (आत्मा) को देह परिमाण माना है। जैन तो आत्मा को देह परिमाण मानते ही हैं । उपनिषदों से भी आत्मा को देह परिमाण- मानने का उल्लेख मिलता है । कोपोतकी उपनिषद्, ४, २० में कहा है कि जिस तरह म्यान में तलवार व्याप्त है, उसी तरह आत्मा शरीर मे नख से ले कर चोटी तक व्याप्त है । इसी तरह तैतरीय उपनिषद् में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ये सब आत्मा शरीर प्रमाण बताएं हैं ।
आत्मा को शरीर से सूक्ष्म मानने वाले. मत भी थे । कुछ
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आदरणीय प्रोफैसर श्री के० वी० चावला, M. A Malwa Engineering College, Sanewal. (Ludhiana) के सौजन्य से ।