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रक्तता वत् फल भी उपलब्ध होता है ।
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धम्मपद मे भी इस बात को स्वीकार किया गया है कि ग्रात्मा ने स्वयं पाप किया है और वह ग्रात्मा से ही उत्पन्न हुआ है । और जो पाप करता है, उसे उस कटुक फल को भोगना ही पडता है * । इस ससार मे ऐसा कोई स्थान नही है, जहा पहुच कर मनुष्य कृत पाप के फल को विना भोगे ही छूट जाए अर्थात् मनुष्य दुनिया के किसी भी भाग मे चला जाए, फिर भी उसे पाप का फल अवश्य भोगना होता है । बुद्ध ने एक ज़गह अपने विषय मे भी कहा है कि ग्राज से ९१ कल्प पहले मैंने अपनी ताकत से एक पुरुष को मारा था और उसी कर्म विपाक के परिणाम स्वरूप मेरे पैर मे काटा चुभा है। इससे स्पष्ट है कि बौद्ध आत्मा मे कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो मानते है । वे पुद्गल-ग्रात्मा को भले ही अनित्य कहे, परन्तु सतति की दृष्टि से उसे नित्य माने विना उनका भी काम नही चलता । इतने लम्बे विवेचन के वाद हम इस निर्णय पर पहुचे कि सबको घूम फिर कर परिणामी नित्यवाद पर ही आना पडता है । भले ही वे उसे शब्दो मे माने या न माने ।
द्वितीय अध्याय
जैनो ने तो आत्मा मे कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्पष्ट रूप से माना है | आगमो मे कहा गया है कि आत्मा अनेक तरह के कर्म करता है । कर्म से ही जीव नर्क, स्वर्ग, असुर आदि योनियो को
९ प्रत्तनाव कत पाप ग्रत्तज अत्तसभव ।
* करोन्तो पापक कम्म य होती कटुकफल ।
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- धम्मपद, १६१.
- धम्मपद, ६६.
पविस्स,
न अन्तलिक्खे, न समुद्दमज्झे, न पव्वतान विवरं न विज्जती सो जगतिप्पदेसो यत्यठ्ठितो मुञ्चेय पापकम्मा ।
-धम्मपद १२७
कम्मा णाणाविहा कट्टु ।
- उत्तरा० ३,२ ॥