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द्वितीय अध्याय शुद्ध आत्मा होती है। सिद्धशिला मे स्थित अनन्त जीवो मे किसी तरह का भेद नहीं होता, सभी समान गुण-धर्म वाले. होते हैं । ससारी जीवों मे कर्मजन्य अनेक भेद-प्रभेद पाए जाते है। ससारी जीव के भी मुख्य रूप से दो भेद हैं - १ त्रस और २ स्थावर । त्रस वह हैं, जो त्रास-दुख से बचने के लिए सुख के स्थान पर आ-जा सके और स्थावर वह है, जो एक स्थान पर स्थित रहे । त्रस जीवो के भी चार भेद हैं-१ द्वीन्द्रिय,२ त्रीन्द्रिय३ चतुरिन्द्रिय और ४पञ्चेन्द्रिय। स्थावर जीवो के पाच भेद हैं-१पृथ्वीकाय,अपकाय-जल ३तेउकाय-- अग्नि,४वायुकाय, ५ वनस्पतिकाय । उत्तराध्ययन सूत्र मे अग्नि और वायु को त्रस काय मे गिना है । यह सापेक्ष दृष्टि से समझना चाहिए। अग्नि और वायु की योनि स्थावर नाम कर्म के उदय से प्राप्त होती है। अत. इस दृष्टि से ये स्थावर कहलाते है। परन्तु उक्त जीवो मे एक स्थान से दूसरे स्थान मे जाने की गति देखी जाती है ।. वायु एव अग्नि की दशो दिशामो मे गति है, पहुच है, इस अपेक्षा से इसे त्रस भी कहा गया है। प्रश्न पूछा जा सकता है कि पानी भी गतिशील है, प्रवहमान है, फिर उसे बस में क्यो नहीं गिना गया? इस का कारण यह है कि पानी की अपनी गति नहीं है । उसमे द्रवत्व होने के कारण वह उस दिशा मे बहता है, जिस दिशा की भूमि नीची है। वह सदा ऊपर से नीचे की ओर बहता है,किन्तु नीचे से ऊपर की ओर बहने की उसकी अपनी शक्ति नही है, अत उसे गति एव नाम कर्म दोनो अपेक्षा से स्थावर माना है । इस तरह से पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा एव वनस्पति ये पाचो स्थावर सजीव हैं, सचेतन हैं । आगम मे इस बात को विस्तार से समझाया गया है कि पृथ्वी आदि योनि मे सजीवता है,
* उत्तराध्ययन सूत्र, ३६, ६९-७०।