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द्वितीय अध्याय
स्पष्ट है कि पत्थर मे भी सजीवता है । अत केवल आगम के प्राधार पर ही नही, पर अपने अनुभव के बल पर भी कह सकते हैं कि पत्थर या पृथ्वी में चेतनता है, आत्मा है ।
अग्नि की सजीवता तो प्रत्यक्ष दिखाई देती है । शरीर की उष्णता एव जुगुनु का प्रकाश सजीवता के प्रतीक है । शरीर मे उष्णता एव जुगनु मे चमक न हो तो वे सजोव नहीं रहेंगे। और अग्नि मे भो उष्णता एव प्रकाश होने से वह भी सजोव है । इस के अतिरिक्त जत्र उसे वायु एवं इधन मिलता रहता है, तो उसमे भी अभिवृद्धि होती है, वह भी फैलता है, वढती है । वायु के प्रभाव मे अनि किसी भो हालत में सचेतन नही रह सकती । प्रज्वलित दीपक एव श्रगारा को किसी वर्तन से बन्द करके बाहर से मिलने वाली हवा को प्रविष्टनही होने देते हैं, तो वह दीपक एव अगारे तुरन्त बुझ जाते हैं । यही कारण है कि किसो व्यक्ति के शरीर पर पहने हुए वस्त्रो में लंगी हुई आग को बुझाने के लिए डाक्टर उस पर पानो न डालकर गर्म कम्वल या मोटे वस्त्र से उसके शरीर को आवृत करने की सलाह देते है। क्योकि इससे उसे बाहर से वायु का मिलना वन्द हो जाता है और उसके प्रभाव मे वह तुरन्त वुझ जाती है । इस तरह खुराक एव वायु के अभाव में उसको जीवन लोला - समाप्त हो जाती है । इसलिए अग्नि भी सजीव है ।
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यह तर्क दिया जाता है कि उष्णता मे जीव केसे जोवित रह सकता है? यह तो जीव के शरीर का स्वभाव वन जाता है कि वह जिस वायुमंडल मे रहता है, उस तरह की गर्मी - सर्दी को सहने का आदि हो जाता है । अत्यधिक ठंडे प्रदेश मे रहने वाले व्यक्ति यदि विना किसी साधन के गर्मी के मौसम मे अत्यधिक गर्म प्रदेश