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प्रश्नो के उत्तर
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से आत्मा की ज्ञानादि पर्यायो मे सदा एकरूपता नही रहती । वही आत्मा कर्ता रूप से परिणत होकर भोक्ता रूप से भी परिणत होता है । दोनो परिणतिया भिन्न होते हुए भी, दोनो ग्रवस्थाओ मे आत्मा का अस्तित्व है । अत परिणति होने मात्र मे ग्रात्म द्रव्य मे एकान्त ग्रनित्यता नही या जाती । ग्रात्मा का मूल रूप परिवर्तनीय सभी अवस्था मे सुरक्षित रहता है । परन्तु ज्ञानादि पर्याये भी ग्रात्मा से भिन्न है, इसलिए पर्याय परिवर्तन की अपेक्षा से श्रात्मा को अनित्य भी मानते हैं । नैयायिक-वैशेषिक ज्ञानादि पर्यायो को ग्रात्मा से भिन्न मानते हैं, परन्तु यह मान्यता बुद्धिगम्य नही कही जा सकती । यह सत्य है कि गुण और गुणी दो है, परन्तु यह भी सत्य है कि गुण गुणी से प्रभिन्न भी है । ऋत गुणो मे होने वाला परिवर्तन गुणी मे भी मानना चाहिए । इस दृष्टि से ग्रात्मा एकान्त नित्य नही, वल्कि परिणामी नित्य ही सिद्ध होता है ।
वौद्ध भी पुद्गल - श्रात्मा को कर्त्ता श्रीर भोक्ता मानते है । उन के सिद्धातानुसार नाम-रूप का समुदाय पुद्गल - ग्रात्मा है । एक नामरूप से दूसरा नाम-रूप उत्पन्न होता है । जिस नाम-रूप ने कर्म किया है वह तो नष्ट हो जाता है, परन्तु जो दूसरा नाम रूप उत्पन्न होता है वह पूर्व कृत कर्म का भोक्ता है । इस प्रकार सन्तति की अपेक्षा से पुद्गल-ग्रात्मा मे कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो पाए जाते है। इस सबध मे बोद्धो की यह कारिका सुप्रसिद्ध है
"यस्मिनेव हि सतानो श्राहिता कर्मवासना,
फलं तत्रैव सन्धते कर्पासे रक्तता यथा ।"*
जिस सन्तान मे कर्मवासना मानी है, उसी सन्तान में कपास की
स्याद्वाद मजरी में उद्धृत, कारिका १८.
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