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प्रश्नो के उत्तर
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पुण्येन कर्मणा भवति पाप पापेन।" * इस तरह जीव को कर्ता एव भोक्ता मानते हुए भी उपनिपत्कार ब्रह्म को - यह जीव जिसका अग है- अकर्ता एव अभोक्ता ही मानते है, वह केवल अपनी लीला का दर्शक है, इसके अतिरिक्त वह कुछ नहीं है ।
दार्शनिकों की मान्यता सांख्य पुरुष को अकर्ता मानता है। वह ब्रह्म को नहीं मानता है। अत निरीश्वरवादी साख्य ने ब्रह्म के समान पुरुप को भी अकर्ता माना है। उसकी मान्यता है कि सुख-दुख,स्वर्ग-नरक,पुण्य-पाप आदि कर्म पुस्प के नही होते है । यहां तक कि मोक्ष भी पुरुप का नही होता है । बन्ध-मोक्ष प्रादि सभी कार्य प्रकृति के होते है । वह पुरुप मे कर्तृत्व मानने से सर्वथा इन्कार करता है, परन्तु पुरष मे भोक्तृत्व तो वह भी मानता है। कुछ साख्य विचारक पुरुष मे भोग भी नही मानते। क्योकि भोग मानने से फिर उसमे एकान्त नित्यता नही रह जाएगी। इसलिए वे पुरुष-प्रात्मा को कर्ता एव भोक्ता न मान कर, मात्र दृष्टा ही मानते है।
नैयायिक-वैशेपिक ने आत्मा मे कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो माने है। वे आत्मा को एकान्त नित्य मानते हुए भी कर्म का कर्ता और कर्म जन्य फल का भोक्ता मानते है, यहा तक कि परमात्मा मे भी कर्तृत्व मानते है । क्योकि वह जगत का कर्ता है।
यहा यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि नैयायिक - वैशेपिक आत्मा को नित्य मानते है । अत इनके मत मे आत्मा
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* वृहदा० ३, २, १३ । $ मैत्रायणी, २, १०-११॥