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प्रश्नो के उत्तर
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भो जीव को परिणामी नित्य मानने है । वेदान्त और इनके परिणामी नित्यवाद में अन्तर यह है कि जैन और मीमासक के मत मे जीव स्वतंत्र हैं और उसमें परिणमन होता रहता है, परन्तु वेदान्तीयो की दृष्टि से जीव स्वतंत्र नहीं वल्कि ब्रह्म का ही अग है, अत उसमे जीव और ब्रह्म की अपेक्षा से परिणामीत्व समझना चाहिए ।
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कुछ दानिको ने श्रात्मा को एकान्त नित्य माना है, तो कुछ ने एकान्त ग्रनित्य । नित्य या ग्रनित्य मानने वालो ने भी नर्क- स्वर्ग- मोक्ष आदि की कल्पना की है । ग्रत यदि आत्मा को एकान्त नित्य मानते है, तो उनमे सर्वथा एकरूपता या जायगी भेद जैसी कोई वात रह ही नही जायगी । इससे लोक - परलोक, स्वर्ग नर्क एव मोक्ष की व्यवस्था घट नही सकेगी और एकान्त अनित्य मानने पर एकरूपता का सर्वथा नागं हो जायगा, भेद ही भेद अवशेष रह जायेगा । दोनों अवस्थाओ मे आत्मा मे कृतकारित्व घट नहीं सकेगा, लोक- परलोक की व्यवस्था भी बैठ नही सकेगी । प्रत. जीव को एकान्त नित्य माननो भी दोप युक्त है और एकान्त श्रनित्य मानना भी दोप युक्त है । प्रत जैनों ने जीव (आत्मा) को नित्या नित्य माना है । आत्म द्रव्य की अपेक्षा से वह नित्य है । क्योकि अनात्म तत्त्वों से आत्मा का निर्माण नही होता है तथा आत्मा अपने स्वरूप का परित्याग करके कभी भी अनात्मा नहीं वनती । आत्मा में ज्ञानादि गुण भी अभेद रूप से है और उन ज्ञानादि की पर्यायों मे प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है । पुरातन पर्यायों का नाश होता है और नई पर्यायों का उत्पाद होता है, इस दृष्टि से आत्मा नित्य भी है । क्योकि वे वदलने वाली पर्याय आत्मा से अभिन्न है ।