________________
९९
द्वितीय अध्याय
कर्ता एवं भोक्ता दोनों कैसे हो सकती है ? यदि वह कर्ता है, तो सदा-सर्वदा कर्ता ही बनी रहेगी और भोक्ता है, तो वह सदा के लिए भोक्ता ही वनी रहेगी । कर्ता के बाद भोक्ता या भोक्ता के वाद कर्ता दोनो कैसे हो सकती है? यदि उसमे एक के बाद दूसरा रूप या धर्म पाया जाएगा, तो फिर वह एकान्त नित्य न रहकर परिणामी हो जाएगी? फिर उसमे अनित्यता भी या जाएगी ? इस शका का समाधान इस प्रकार किया गया है- ग्रात्म द्रव्य नित्य है, फिर भी ज्ञान, चिकीर्षा और प्रयत्न यादि जो समवाय हैं, वह कर्तृत्व है अर्थात् आत्मा मे ज्ञानादि का समवाय सवव होना यही श्रात्मा का कर्तृत्व है । क्योकि ग्रात्मा में जो ज्ञान का सबंध होता है, वह उससे अलग भी हो जाता है । कारण कि ज्ञान स्वयं उत्पन्न भी होता है और विनाश को भी प्राप्त हो जाता है । इसी तरह सुख-दुख के सवेदन का जो समवाय है, वह आत्मा का भोक्तृत्व है IT यह सवेदन या सुख-दुख का अनुभव भी ज्ञान रूप होने से यह भी श्रात्मा में स्वभावत. विनिष्ट होता है । इतना होने पर भी आत्मा स्वय विकृत नही होता । क्योकि उत्पत्ति और विनाग अनुभव के होते हैं, आत्मा के नही । मात्र समवाय सवध होने से आत्मा को भोक्ता कहते हैं, परन्तु इतना मानने मात्र से उसमे कर्तृत्व नही या जाता है । क्योकि उस सवध के छूट जाने के बाद वह भोक्ता नही रह जाता है। इनकी दृष्टि मे द्रव्य और गुण में भेद है ।
त. गुण. मे परिवर्तन होने पर भी द्रव्य मे परिवर्तन नही होता है । परन्तु आत्मा को परिणामी नित्य मानने वाले जैनो को दृष्टि
+ ज्ञानचिकी प्रिपत्नाना समवाय. कर्तृत्वम् । –न्यायवार्तिक, ३,१,६. सुख-दुखसवित्समवायो भोक्तृत्वम् । - न्यायवार्तिक, ३,१,१.