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द्वितीय अध्याय
अत. अपेक्षाकृत आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी है । वह न तो सांख्य की तरह कूटस्य नित्य है और न बौद्धो की मान्यतानुसार एकान्त अनित्य है । यह सत्य है कि उसकी पर्यायो मे परिवर्तन होता है । वह परिवर्तन द्रव्य की नित्यता को सुरक्षित रखते हुए होता है । अत आत्मा परिणामी नित्य है अर्थात् नित्यानित्य है । मीमासक दर्शन के प्रमुख विचारक कुमारिलभट्ट को भी यह परिणामी नित्यवाद स्वीकार है ।
आत्मा का कर्तृत्व और भोक्तृत्ववाद
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श्रात्मा कर्ता एवं भोक्ता है या नहीं, इस सवव मे सभी दार्शनिक एक मत नहीं है । उअनिवदो मे आत्मा का कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो उपलब्ध होते हैं । वहा जीव को फल प्राप्ति के लिए 'कर्म का कर्ता और उस कृत कर्म की भोक्ता भी कहा है । और यह भी माना है कि जीव न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुसक है । परन्तु अपने कर्म के अनुसार जिस-जिस योनि के शरीर को धारण करता है, वह उसके साथ सवद्ध हो जाता है और सकल्प, विषयो का स्पर्ग, दृष्टि और मोह तथा इसी तरह अन्न-जल आदि से शरीर की उत्पत्ति एव अभिवृद्धि होती है । शरीर युक्त जीव स्वकर्म के अनुसार विभिन्न स्थानो मे परिभ्रमण करता है और कर्म के कारण ही प्रत्येक जन्म मे वह शरीर की अपेक्षा से भिन्न परिलक्षित होता है । $ वृहदारण्यक में भी कहा है कि अच्छा कार्य करने वाला अच्छा और बुरा कार्य करने वाला बुरा होता है | "पुण्यो वै तत्त्व संग्रह, कारिका, २२३-२२७ ।
श्वेताश्वर, ५, ७ ।
S श्वेताश्वर, ५, १०-१२ ।