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द्वितीय अध्याय
बाहर उपलब्ध नही होते । अत. आत्मा को सर्वव्यापक एव अणु आदि परिमाण मानना अनुभव एव प्रत्यक्ष आदि सभी प्रमाणो से विरुद्ध है । शुद्ध ग्रात्मा का इन्द्रियगोचर कोई ग्राकार नही है । क्योकि वह अरूपी है । परन्तु कर्मों के साथ सवद्ध होने से उसे जिस तरह का सावन मिलता है, उसमे अपने ग्रात्म प्रदेशो को फैला देती है। जैसे-एक दीपक अपने प्रकाश से पूरे कमरे को जगमगा देता है, परन्तु जब उसी दीपक को छोटी-सी कटोरी के नीचे रखा जाता हैं, तो वह उतने से स्थान को ही प्रकाशित कर पाता है । जैसे- दीपक का प्रकाश साधन के अनुसार थोडे एव विस्तृत भाग मे फैलता रहता है । इसी तरह ग्रात्म प्रदेश भी स्वभाव से सकोच - विस्तार वाले होते हैं । इसलिए उन्हे जैसा साधन मिलता है, उसी के अनुरूप फैल एव सिकुड़ जाते है । अस्तु ससारी ग्रात्मा शरीर व्यापी है, ऐसा मानना चाहिए ।
आत्मा-जीव नित्यानित्य है
सांख्य का कूटस्थवाद
आत्मा अर्थात् जीव को नित्य माना जाए या अनित्य, इस सबंध मे दार्शनिको में काफी मतभदे है । भूतवादी तो ग्रात्मा - चेतना को अनित्य मानते हैं । क्योंकि वे शरीर को ही आत्मा मानते हैं, त शरीर के नाग के साथ आत्मा का भी विनाश हो जाता है । परन्तु, जो दार्शनिक भूतो एव शरीर से आत्मा को अतिरिक्त मानते है, उनमे भी नित्यानित्य के सबंध मे विभिन्न मान्यताए है ।
साख्य दर्शन ग्रात्मा को कूटस्थ नित्य मानता है । जबकि साख्य दर्शन परिणामवादी है । वह प्रकृति को परिणामी मानता है, परन्तु आत्मा को अपरिणामी ही मानता है । वह आत्मा मे किसी भी तरह की