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प्रश्नो के उत्तर
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विस्तार हो सकता है । एक हो वस्त्र रक्त - अरक्त, पीत - अपीत हो सकता है, तब फिर एक हो वस्तु मे एक और अनेक, नित्य और अनित्य आदि की सत्ता को मानने से इन्कार करने का क्या कारण है ? हमे लगता है कि इसके पोछे एक मात्र असनो मान्यता का प्राग्रह एव साप्रदायिक अभिनिवेग हो कारण है, जिसके कारण दार्शनिक एक वस्तु में विरोधी धर्मों को सत्ता को स्वीकार करते हुए भी स्याद्वाद पर दोषारोपण करते हैं। परन्तु उनका यह प्रयास मूर्य पर धूल फेक कर उसे प्रच्छन्न करने जैसा वाल-प्रयास हो कहा जा सकता है । क्योकि वस्तु का स्वल्प ही ऐसा है कि उसमे अनेक धमों को स्वीकार किये विना उसका स्वरूप स्पष्ट ही नहीं हो सकता और न हमारा व्यवहार ही चल सकता है।
२-कुछ विचारको का तर्क है कि यदि वस्तु को भेदाभेद उभयात्मक मानेंगे तो उस मे यह दोप पाएगा कि वस्तु की एकरूपता नहीं रह पाएगी। क्योकि भेद का आश्रय अलग होगा और अभेद का आश्रय अलग। इस तरह उसको एकरूपता नष्ट हो जायेगी ! '
यह तर्क भी गलत है। क्योकि भेद और अभेद अलग-अलग वस्तु या वस्तु-अगों में नही है। वे एक हो वस्तु में है । जो वस्तु एक अपेक्षा से भेदात्मक है, वही वस्तु दूसरी दृष्टि से अभेदात्मक है। जैसे हम एक ही वस्त्र को सकोच पोर विकासशील कहते हैं तो उस का यह अर्थ नही है कि उसका एक कोना सकोचशील है और दूसरा कोना विकासशील। परन्तु उसका तात्पर्य यह है कि वह पूरा वस्त्र सकोचशील अोर विकासशील है। अयवा जो भाग सकाचशील है वहीं विकासशील है
और जो भाग विकासशील है वही सकोचशील । इसी तरह भेद-अभेद विरोधी धर्म एक ही वस्तु मे रहते है, विभिन्न वस्तुओ मे नही, अतः उन का आश्रय भिन्न मानने की आवश्यकता नही । एक ही वस्तु के