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प्रश्नो के उत्तर
अवस्था उत्तर अवस्था से न तो सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न है, परन्तु अव्याकृत है $ |
दार्शनिकों का आत्मवाद
उपनिषद् काल के वाद अनेक वैदिक दर्शनो की परपरा स्थापित हुई है । और आत्मा के सबध मे उन का दृष्टिकोण उपनिपदों से भिन्न रहा है। उपनिषदों मे भी अनेक विचार पपराए सुरक्षित है, परन्तु उन सव में एक-वात सामान्य रूप से पाई जाती है, वह है अद्वैतवाद | भले ही भूतवादी हो या चेतनवादी, सभी विश्व के मूल मे भूत या चेतन एक ही तत्त्व मानते हैं । ऋगवेद मे भी विश्व के मूल तत्त्व को एक माना है, परन्तु उन्होने उसका भूत या चेतन नाम नही रखा । ब्राह्मण काल मे उसे प्रजापति का नाम दिया गया और उपनिपदो मे उसे सत् असत्, आकाश, जल, वायु, प्राण, मन, प्रज्ञा, ग्रात्मा, ब्रह्म आदि अनेक नाम से जाना-पहचाना गया । परन्तु सभी विचारको ने अद्वैतवाद को नही छोडा। परन्तु वैदिकं दर्शन मे सभी को अद्वैतवाद स्वीकार नही है । न्याय-वैशेषिक, साख्य, पूर्व मीमासा आदि दर्शनो ने विश्व के मूल मे जड़ और चेतन दो मूल तत्त्वो को स्वीकार किया है और आत्मा को भी एक नहीं, अनेक माना है तथा जड से भिन्न चेतन स्वरूप स्वीकार किया है ।
जैन दर्शन ने भी विश्व के मूल मे जीव और अजीव या जड़ और चेतन दो मौलिक तत्त्वो को स्वीकार किया है | चेतन के शुद्ध स्वरूप को अमूर्त माना है। फिर भी सासारिक आत्माओ को मूर्त और अमूर्त दोनो $ मिलिन्द प्रश्न २, २५-३३ ।_
* तदेक । '
- ऋगवेद १०,१२९
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