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द्वितीय अध्याय
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अविभागाद्वैतवाद विज्ञान भिक्षु का कहना है कि प्रकृति और पुरुष-जीव ब्रह्म से अलग दिखाई देने पर भी उससे विभक्त-अलग रह नहीं सकता। जीव अनेक है, नित्य है, व्यापक है। जीव और ब्रह्म का सवध पितापुत्र का-सा सवध है। जैसे जन्म के . पहले पुत्र पिता मे ही समाविष्ट था, उसी तरह जीव पहले ब्रह्म मे समाहित था। जन्म के समय वह ब्रह्म मे से प्रकट होता है और प्रलय के समय फिर से उसी मे लीन हो जाता है । ब्रह्म की इच्छा-याकाक्षा से जीव का प्रकृति के साथ सवध होता है और जगत की सृष्टि होती है।
शैवमत वेदान्त एव उपनिषद् को मानने वालो के अतिरिक्त एक और दर्शन है, जो वेदान्त को न मानते हुए भी अद्वैतवाद को मानता है। वे शिव के उपासक शैव है और उनके दर्शन को 'प्रत्यभिज्ञा'दर्शन कहते है उनके विचार से ब्रह्म के स्थान में अनुत्तर नाम का एक तत्त्व है । यह तत्त्व सर्वशक्तिमान और नित्य है। उसे शिव और महेश्वर भी कहते है । जीव और जगत ये दोनो शिव की इच्छा से उसमे से प्रकट होते है। इस कारण जीव और जगत दोनो मिथ्या नही, सत्य है।
जीव को एक और अनेक मानने के सवध मे समस्त दार्शनिको मे दो विचार धाराए काम कर रही है। उपनिषद्, वेदान्त-माध्वाचार्य को छोडकर और गैव अद्वैतवाद को मानते है और शेष न्याय-वैगेषिक, साख्य, पूर्व-मोमासक श्रादि वैदिक दार्शनिक और बौद्ध, प्राजीविक, जैन आदि अवैदिक दार्शनिक अनेक जीव मानते हैं अर्थात् द्वैतवाद को मानते है।