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प्रश्नो के उत्तर
है । दोनो एक हैं, अद्वैत है । द्वैताद्वैत- भेदाभेदवाद
श्राचार्य निम्बार्क की दृष्टि से चित् और अचित् ये ब्रह्म के दो रूप है । उक्त दोनो रूप ब्रह्म से भिन्न भी हैं, और अभिन्न भी है । जिस तरह वृक्ष और पत्तों में, दीप और प्रकाश मे भेदाभेद है, उसी प्रकार ब्रह्म और चिद् एव प्रचिद् रूप दोनो मे भेदाभेद संबंध है । जगत ब्रह्म की शक्ति का रूप है, अत सत्य है । जीव ब्रह्म का ग्रश है और ग्री का भेदाभेद सवध है । ऐसे जीव अनेक है, नित्य है और अणुपरिमाण है । यह भी रामानुज की तरह मुक्त दगा में जीव का भेद मानते हैं, पर उसे ब्रह्म से भिन्न नही, ग्रभिन्न ही मानते है । अत इनके मत को द्वैताद्वैत या भेदाभेदवाद कहते हैं ।
भेदवाद
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श्राचार्य माध्व वेदान्ती है, फिर भी उन का विचार अन्य वेदान्तियो से भिन्न दिशा मे प्रवहमान हुआ है । ब्रह्म सूत्र की व्याख्या उन्हो ने अपने विचार के अनुरूप की है । उन्होने ग्राचार्य गकर आदि के विचारो के खूटे से अपने दिमाग को बाध कर नही सोचा । यह सत्य है कि रामानुज यादि आचार्यो ने शंकर की तरह अनेक जीवो एव जगत को मिथ्या नही कहा है । परन्तु अद्वैत की सुरक्षा सब ने की है और सबने अद्वैत का ही समर्थन किया है । परन्तु आचार्य माध्व ने द्वैत का समर्थन किया है। उन्हो ने ब्रह्म को निमित कारण और जीव को उपादान कारण माना है । वे जीवो मे हो परस्पर भेद है इतना ही नही, परन्तु यह भी मानते हैं कि जीव ब्रह्म से भी भिन्न है । उन के विचार से जीव अनेक हैं, नित्य हैं, अणु परिमाण हैं । ब्रह्म की तरह जीव भी सत्य है, केवल वह उस के अधीन है !
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