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प्रश्नो के उत्तर
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ही नजर ग्राएगे। क्योकि संसार मे नारकी और तिर्यश्व जीव ही अधिक है और प्रायः ये सब दुखी होते हैं, प्रत. फिर तो सारा ससार दुःखी ही होना चाहिए। क्योकि किसी व्यक्ति के सारे शरीर मे रोग फैला हुआ हो और मात्र एक गुली ही रोग मुक्त रही हो, तो भी उस का साग शरीर रोग युक्त ही कहा जाता है । ग्रत ससार के अधिक भाग के जीव दु ख ग्रस्त होने से सभी जीव दुखी प्रतीत होने चाहिए, परन्तु व्यवहार मे ऐसा नही देखा जाता। एक के सुखी होने पर या मुक्त होने पर न दूसरा सुखी या मुक्त होता है और न एक के दुखी होने पर दूसरा दुखी ही होता है । इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि जगत के सभी जीव एक नही, अनेक हैं. स्वतन्त्र है ।
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प्रश्न- जैन दर्शन जीवों को श्रनेक मानता है, परन्तु स्थानांग सूत्र में 'एग्गे श्राया' अर्थात् आत्मा एक है, ऐसा माना है । एक जगह आत्मा को एक मानना और दूसरी जगह अनेक मानना, क्या यह इस बात का प्रतीक नहीं कि जैनागमों में भी आत्मा के सम्बन्ध में एक मान्यता नहीं है ।
उत्तर- जनो की मान्यता एक रूप ही है । उसमे विरोध जैसी कोई वात नही है । श्रात्मा को जो एक और अनेक माना गया है उस मे केवल अपेक्षा भेद है, सैद्धान्तिक भेद या विरोध नही हैं। सिद्ध श्रोर ससारी सभी आत्माए प्रसख्यात् प्रदेशी है और सब का उपयोग लक्षण है । ऋत समान गुण की अपेक्षा से उन्हे एक कहा है और वह भी समान स्वरूप की अपेक्षा से न कि व्यक्ति की अपेक्षा से । यह हम
$ विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १५८१ से १५८४ ।