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द्वितीय अध्याय
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ठहरेगा। क्योकि एक ही समय मे एक जीव सुखी और दूसरा दुखी रह नही सकता। इसी तरह एक वन्धन युक्त और दूसरा मुक्त भी नही बन सकता । क्योकि एक ही जीव मे, एक ही समय मे एक सुखी, दूसरा दुःखी यह विरुद्ध ग्रनुभूति नही हो सकती । परन्तु प्रत्यक्ष मे ऐसा देखा जाता है, प्रत जीव एक नही, विभिन्न हैं, अनेक हैं, ग्रनन्त हैं, ऐसा मानना चाहिए ।
इन्द्रभूति द्वारा दिया गया यह तर्क भी विचारणीय है कि आप ( महावीर ) जीव का लक्षण उपयोग मानते हैं और यह उपयोग लक्षण दुनिया के समस्त जीवो मे एक-सा है, तो फिर उन विभिन्न जीवो मे विलक्षणता एव अनेकता मानने का क्या कारण है ? उत्तर मे कहा गया कि सामान्य रूप से उपयोग लक्षण सभी जीवो मे समान है, फिर भी प्रत्येक जीव मे उपयोग भी विशेष विशेष प्रकार का परिलक्षित होता है या यो कह सकते हैं कि उपयोग का उत्कर्ष एव अपकर्ष जीवो मे ग्रनन्त प्रकार का देखा जाता है, इससे स्पष्ट है कि सभी जीवो का उपयोग अलग-अलग है । यदि सब जीवो को एक जीव रूप माना जाय तो सवका ज्ञान-दर्शन रूप उपयोग एक समान होगा, परन्तु हम प्रत्यक्ष मे अनुभव करते हैं कि एक जीव का ज्ञान दर्शन रूप उपयोग दूसरे जीव से भिन्न है अर्थात् किसी मे ज्ञान का उत्कर्ष देखने को मिलता है, तो किसी मे पकर्ष |
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दूसरी बात यह है कि जीव को एक मान ले तो फिर उसे सर्व व्यापक भी मानना होगा, जैसे कि आकाश । और उसे सर्वं व्यापक मानने से यह दोष आएगा कि उसमे सुख-दुःख, वध-मुक्ति आदि बाते घटित नही होगी । एक जीव के दुखी होने पर सभी दुखी और एक के सुखी होते ही सव सुखी हो जाएगे। ऐसा कहना चाहिए कि आत्मा को एक मान लेने पर ससार में सुख रह ही नही जाएगा, समस्त ससारी जीव दुखी