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द्वितीय अध्याय
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श्रोताओं को समझा देते थे।
तथागत बुद्ध अनात्मवादी है परन्तु उच्छेदवादी नही, क्योकि वे चार्वाक आदि की तरह एकान्तत आत्मा का उच्छेद नहीं करते। बुद्ध को चार्वाक का एकान्त देहात्मवाद भी मान्य नही और उपनिषद का एकान्त सर्वान्तर्यामी नित्य, घ्र द, शाश्वत आत्मा भी मान्य नहीं । उन के विचार मे पात्मा शरीर से एकान्त अभिन्न है ऐसा भी कहना उचित नहीं और एकान्त भिन्न ऐसा मानना भी उपयुक्त नहीं। उन्हे भूतवादियों का भौतिकवाद भी एकान्त प्रतीत होता है और उपनिषद् का कूटस्थ नित्य पात्मवाद भी एकांत दिखाई देता है । इसलिए उन का मार्ग दोनों वादों के बीच का या मध्यम मार्ग है । जिसे वे 'प्रतीत्यसमुत्पादवाद'- अमुक वस्तु की अपेक्षा से अमुक वस्तु का निर्माण हुआ ऐसा कहते हैं।
बुद्ध के मत में संसार में सुख-दुख आदि अवस्थाएं, कर्म, जन्म, मरण, वन्ध-मुक्ति आदि सभी बातें हैं। परन्तु इन सब का कोई स्थिर आधार नहीं। ये सव अवस्थाए पूर्व पूर्व के कारणों से उत्पन्न होती हैं और एक अभिनव कार्य को उत्पन्न करके नष्ट हो जाती है। बुद्ध को न तो पूर्व के कार्य का सर्वथा उच्छेद इप्ट है और न नित्यत्व ही इष्ट है। पदार्थ की उत्तर अवस्था पूर्व से सर्वथा- असर्वद्ध है, अपूर्व है ऐसा भी नही कहा जा सकता । क्योकि उभय अवस्थाएं कार्य-कारण को शृखंला में आवद्ध है। पूर्व की पर्यायो का संस्कार उत्तर की पर्यायो को मिल जाता है, इस से वे तद्रूप ही हैं अथवा उत्तर पूर्व से अभिन्न है, ऐसा भी उन्हें इष्ट नहीं हैं, क्योकि इस सिद्धांत को मानने से द्रव्य का नित्यत्व सिद्ध हो जाता है। इससे बुद्ध के क्षणिकवाद को गहरा धक्का पहुचता है । अतः बुद्ध ने यह कर इस प्रश्न को टाल दिया कि पूर्व
* देखो सयुनिकाय १२ ७०, दीघनिकाय-महानिदानसुत, १५ ।