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प्रथम अध्याय
श्रमण भगवान महावीर ने जिस तरह पर्याय दृष्टि से वस्तु का विवेचन किया है, उस तरह प्रदेश दृष्टि से भी निरूपण किया है । उन्होंने अपना उदाहरण देते हुए कहा है कि मै द्रव्य की दृष्टि से एक हूं, ज्ञान और दर्शन रूप पर्यायो की दृष्टि से दो हू और प्रदेशो की दृष्टि से अक्षय, अव्यय और नित्य हू । क्योकि यात्म प्रदेशो को सख्या मे कभी भी न्यूनाधिकता नहीं होती। वस्तु को अनेकता को सिद्ध करने के लिए भी प्रदेश दृष्टि का उपयोग किया गया है । द्रव्य दृष्टि से आत्मा एक है, परन्तु प्रदेश दृष्टि से प्रात्मा अनेक है, क्योकि यात्म प्रदेश असल्यात है। इसी तरह धर्मास्तिकाय द्रव्य दृष्टि से एक है और प्रदेश दृष्टि से अनेक है, क्योकि वह असख्यात प्रदेशी है। अन्य द्रव्यो के सवध में भी ऐसा ही समझना चाहिए । इस तरह द्रव्य और प्रदेश दृष्टि से भी वस्तु के स्वरूप का परिबोध होता है।
व्यवहार और निश्चय __ वस्तु जिस रूप में परिलक्षित हो रही है, तद्रूप ही है या उससे भिन्न रूप मे है ? यह प्रश्न प्राचीन काल से दार्शनिको के संघर्ष का कारण बना रहा है। कुछ दार्शनिक वस्तु के दो रूप मानते हैं-प्रातिभासिक और पारमार्थिक । चार्वाक आदि भूतवादी विचारक परमार्थ और प्रतिभास रूप मे कोई भेद नहीं करते । उनके विचार से इन्द्रिय से दिखाई देने वाला तत्त्व ही पारमाथिक-सत्य है । भगवान महावोर ने उभय रूपो को स्वीकार किया है । इन्द्रिय को सहायता से दिखाई देने वाला वस्तु का स्थूल स्वरूप है, इसके अतिरिक्त वस्तु का सूक्ष्म स्वरूप भी होता है, वह अांखो से दिखाई नहीं देता। श्रुत या आत्म प्रत्यक्ष से देखा जाता है। वस्तु का स्थूल रूप व्यवहार दृष्टि से सत्य है और सूक्ष्म रूप निश्चय दृष्टि से सत्य है। व्यवहार दण्टि इन्द्रिय आश्रित