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७१.wwwww
द्वितीय अध्याय जब विचारकों ने मन के आगे सोचना शुरु किया तो उन्हे लगा कि मन भी स्वय निर्णय करने में समर्थ नहीं है, वह भी किसो के द्वारा संचालित है । मन और प्राण प्रज्ञा के द्वारा ही अपने - अपने विपय की जानकारी कर सकते है । अत कौषीतको उपनिषद् मे प्राण को प्रजा या प्रजा को प्राण कहा गया हैं *। इसी तरह तैत्तरीय उपनिषद् में विज्ञानात्मा को मनोमय प्रात्मा कहा है और ऐतरेय उपनिपद् में प्रज्ञान ब्रह्म की जो पर्याये गिनाई गई हैं, उस में मन भी शामिल है । इस से स्पष्ट होता है कि मन के साथ प्रजा, प्रज्ञान और विज्ञान का सवध रहा हुआ है । उक्त तीनो गन्द एकार्थक हैं । मन भी सूक्ष्म है, परन्तु उसे कुछ दार्गनिक भौतिक मानते हैं और कुछ अभौ-- तिक । पर जव से प्रजा, प्रज्ञान या विज्ञान को प्रात्मा माना जाने लगा तव से आत्मा को भौतिक से अभौतिक मानने लगे। ____ प्रज्ञा को इन्द्रियो का अधिष्ठाता अवश्य माना गया परन्तु अभी तक प्रजा के स्वयं प्रकाशक रूप की ओर किसी का ध्यान नही गया। वह सव इन्द्रियो का स्वामी है, फिर भी इन्द्रियो को सहायता के विना किसी विषय की जानकारी नहा कर सकता। सुषुप्तावस्था मे इन्द्रिय सुप्त रहती है, अत. उस समय ज्ञान नहीं होता। इसी तरह दूसरे जन्म मे जब तक इन्द्रियो की प्रांति नहीं हो जाती,तबतक प्रज्ञा अपना काम नहीं कर सकती । इन्द्रिया प्रज्ञा के आधीन है,ऐसा मानने पर भी यह कहा जाता है कि वह इन्द्रियो के सहयोग विना कुछ भी नहीं कर सकती। इस का कारण यह है कि उन्होंने प्रज्ञा और प्राण को एक माना है और जव तक प्राण को ही प्रज्ञा मानने का आग्रह है, तब तक
* यो वै प्राण, सा प्रज्ञा या वा प्रज्ञा स प्राण mm . . -- - - . .. कौषीतकी, ३, २, ३,३।