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प्रथम अध्याय
शब्द का अर्थ ग्रहण करना चाहिए । । यथा-जिस समय वाह्य एव प्राभ्यान्तर , प्रन्थि-परिग्रह की गाँठो से रहित हो उस समय ही निर्ग्रन्थ कहना चाहिए, परन्तु जिस समय राग-द्वेप मे परिणति हो रही हो या वाह्य पदार्थो के सग्रह मे प्रवृत्ति कर रहा हो, उस समय निग्नन्थ नही कहना चाहिए। जिस समय श्रम या तपश्चर्या कर रहा हो, उस समय श्रमण और जिस समय मौन धारण कर रखी हो, उस समय मुनि कना चाहिए।
सप्त नयों का पारस्परिक संबंध यह हम देख चुके हैं कि पीछे की नय का विषय पहले की नय के विषय से सकुचित होता जाता है। नैगम नय का दायरा सबसे विस्तृत है। क्योकि वह सामान्य एव विशेष उभय को ही अपना विषय बनाता है। कभी सामान्य को प्रमुखता देता है और विशेष को गौणता, तो कभी विशेष को प्रधानता देता है और सामान्य को अप्रधानता । सग्रह नय का क्षेत्र पूर्व नय से सीमित हो जाता है। वह केवल सामान्य को ही स्वीकार करता है । व्यवहार नय सग्नह द्वारा स्वीकृत विषय का ही कुछ विशेषताओं के आधार पर विभाजन करता है। ऋजुसूत्र नय का विषय व्यवहार नय से भी कम है,क्योकि व्यवहार नय त्रिकालिक विपय का अस्तित्व स्वीकार करता है, परन्तु ऋजुसूत्र नय केवल वर्तमान को ही स्वीकार करता है । शब्द नय का क्षेत्र उससे भी सीमित है, क्योकि वह कालादि के भेद से ही शब्द के अर्थ मे अतर मानता है । समभिरूढ नय व्युत्पत्ति भेद से अर्थ मानता है और एवभूत नय शब्द की व्युत्पत्ति के अनुरूप जिस समय प्रवृत्ति हो रही हो उस समय ही उस व्यु"क्रिया परिणतार्थ चेदेवम्भूतो नयो वदेत् ।
--द्रव्यानुयोग तर्कणा
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