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प्रथम अध्याय.
भेद मानता है $ । काल तीन हैं- भूत, वर्तमान और भविष्य | कारक सात हैं- कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सवध, अधिकरण । लिग तीन है - पुलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग । सुख्या के भी तीन -भेद हैं- एकवचन, द्विवचन और बहुवचन । इत्यादि भेद से शब्द के अर्थ मे भी भेद हो जाता है । काल की अपेक्षा से अर्थ भेद का उदाहरण इस प्रकार दिया जा सकता है- "काशी नगरी थी और काशी नगरी -है" उक्त दोनों वाक्यो मे जो अर्थ भेद परिलक्षित होता है, वह शब्द नय की दृष्टि से है । इस तरह कारकादि के भी उदाहरण दिए जा सकते है । कहने का तात्पर्य इतना ही है कि शब्द नय कालदि के भेद से अर्थ मे भेद मानता है । परन्तु वह शब्द भेद से अर्थ भेद नही मानता है । जैसे कुभ और कलश दो भिन्न शब्द है, फिर भी शब्द नय उस के अर्थ मे भेद नही मानता है । शब्द नय अनेक पर्याय- अनेक शब्दो द्वारा सूचित वाच्यार्थ को एक हो पदार्थ समझना है " । अस्तु वह कालदि के भेद से ही अर्थ भेद मानता है, शब्द भेद से नही ।
समभिरू नय
शब्द नय कालादि के भेद से अर्थ भेद मानता है । एक काल या एक लिंग वाले पर्यायवाची शब्दो मे वह भेद नही करता है । परन्तु जव यह भेद बुद्धिं कुछ आगे बढ़ती है, तो वह शब्द भेद से भी अर्थ भेद मानने लगती है, यह दृष्टि समभिरूढ नय के नाम से जानी जाती है ।
§ कालादि-भेदेन ध्वनेरर्थ भेद, प्रतिपद्यमान शब्द |
- प्रमाणनय तत्त्वालोक, ७, ३२
* अर्थ शब्दनयोऽनेकै पर्यायैरेकमेव च ।
मन्यते कुम्भ-कलश-घटाद्येकार्थ वाचक. ॥
-नयकर्णिका, १४
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