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प्रश्नों के उत्तर
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त्पत्ति सिद्ध अर्थ को मानता है । इस तरह एवंभूत नय का दायरा सव से छोटा है । इस तरह सातो नय एक दूसरे के साथ सवद्ध है। उत्तरउत्तर नय पूर्व-पूर्व नय पर ग्राधारित है । और पूर्व-पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर नय सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होता जाता है ।
स्याद्वाद और नयवाद का सम्बन्ध
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जैनदर्शन के चिन्तन की दृष्टि काफी विस्तार से पाठको के सामने आ गई है । इतने विस्तृत विवेचन के बाद यह स्पष्ट हो गया कि नयवाद एकान्तवादी नही है । नयवाद, स्याद्वाद दृष्टि को सामने रख कर ही विवेचन करता है । यह तो एक विवेचन करने की शैली है कि वह कभी सामान्य की दृष्टि से वस्तु का विवेचन करता है, तो कभी विशेष की अपेक्षा से । कभी उसकी दृष्टि मे द्रव्य की प्रमुखता होती, तो कभी पर्याय की प्रमुखता रहती है । इसी अपेक्षा से सातो नय को द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो भागों मे विभक्त किया गया है । प्रथम के तीन सामान्य की ओर अधिक झुके हुए हैं, तो पीछे के चार नयो मे विशेष की और अधिक झुकाव है । सामान्य और विशेष या द्रव्य और पर्याय ये दोनो ही वस्तु मे स्थित हैं । स्याद्वाद भी दोनो को स्वीकार करता है और नयवाद भी दोनो दृष्टियो को सामने रखता है । अतर सिर्फ विवेचन करने का है, दोनों की विवेचन शैली - पद्धति मे अन्तर है । वह यह कि स्याद्वाद वस्तु के समग्र रूप का विवेचन करता है और नयवाद वस्तु के एक अश का विवेचन करता है । परन्तु दोनो की दृष्टि सापेक्ष है । अत स्याद्वाद एव नयवाद मे कोई सैद्धातिक भेद नही है ।
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