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प्रश्नो के उत्तर
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है कि आत्मा के अस्तित्व के सबंध मे दार्गनिको मे सामान्यत मतभेद नहीं है । मतभेद यां विवाद है तो वह छात्मा के स्वरूप को मानने के सवंध में है। कोई गरीर को ही यात्मा मानते हैं,कोई बुद्धि को,कोई इन्द्रियों को, कोई मन को और कोई सघात को आत्मा समझते हैं । कुछ ऐसे विचारक भी है कि जो इन सबसे पृथक यात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को मानते हैं । * इससे स्पप्ट है कि भारतीय संस्कृति के सभी विचारको ने आत्मा को मानने से इन्कार नही किया। आत्मा के विषय मे उनका कोई मतभेद नहीं है, मतभेद है उसके स्वरूप को लेकर।
मानव जव तक चिंतन की गहराई मे नहीं उतरता, अपने अंदर नही झांकता-देखता, तब तक उसकी दृष्टि, उसकी विचारधारा, उस की सोचने-समझने की शक्ति चाह्य पदार्थो तक ही सीमित रहती है । और जब तक मनुष्य बाहरी पदार्थों की ओर ही देखता - विचारता है तव तक वह उन्हे ही मौलिक तत्त्व के रूप मे स्वीकार करता है। क्योंकि उनके अतिरिक्त उसके सामने अन्य कोई द्रव्य है ही नही जिस पर वह कुछ सोचे - विचारे। यही कारण है कि उपनिषदो मे कई ऐसे विचारको का अभिमत देखने को मिलता है, जिन्होने जलवायु जैसे इन्द्रिय ग्राही पदार्थो को विश्व के मूल तत्त्व के रूप मे स्वीकारा है। उन
की विचार शक्ति आत्मा के अमूर्त स्वरूप तक पहुची ही नहीं । आत्मा : की बात तो दूर रही, भौतिक तत्त्वो मै भी वे सूक्ष्म शक्तियो का सा
क्षात्कार करने मे असफल रहे। उन की निगाह मूर्त और उस मे भी - स्थूल पदार्थो को ही देख सकी और वे उन्ही की अनुभूति कर सके। पर इतना तो मानना होगा कि यह उन के चिन्तन की पहली भूमिका • * न्यायर्वातिक पृ. ३६६. .
$ वृहदारणयक ५, ५, १ - * छान्दोग्योपनिषद,४, ३