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द्वितीय अध्याय
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थी। विश्व को जानने की जिज्ञासा मानव मन मे जग चुकी थी। उस का मन-मस्तिष्क चिन्तन के क्षेत्र मे अगडाई लेने लगा था।
जव मानव मनन के क्षेत्र मे आगे वढा,, ज़रा गहराई मे उतरा तो उसने मूर्त पदार्थो को मौलिक तत्त्व न मान कर असत् $, सत्, ग्राकाग आदि सूक्ष्म एव वुद्धिग्राह्य पदार्थों को स्वीकार किया। वह कुछ आगे तो वढा,परन्तु अभी तक भौतिक पदार्थो से ऊपर नही उठा । उसका चिन्तन जडत्व पर ही अटक गया। ऐसा प्रतीत होता है कि उस ने इन वाह्य तत्त्वो को ही मौलिक माना हो और इन्ही अतीन्द्रिय तत्त्वो में से ही आत्मा की उत्पत्ति की हो। - जव चिन्तक की चिन्तन धारा वाह्य पदार्थों से हट कर अदर की ओर मुड़ी, या यो कहिए कि जब साधक विश्व के मूल को बाहर नही,अपितु अपने भीतर ही गोधने लगा, तब उसने प्राण $ तत्त्व को मौलिक तत्त्व के रूप में स्वीकारा । और प्राण तत्त्व से विकास करके वह ब्रह्म या आत्माद्वैत तक पहुच गया हो, ऐसा लगता है। - आत्मिक चिन्तन की उत्क्राति के इस स्वरूप का समर्थन आत्मा से संबद्ध मिलने वाले विभिन्न नामो से होता है। प्राचारांग सूत्र में जीव के लिए भूत, सत्व. प्राण जैसे शब्दो का जो व्यवहार देखने को मिलता है, वह चिन्तन धारा के आत्मा तक पहुचने के इतिहास को प्रस्तुत करता है । प्राचीन विचारक किसी एक तत्त्व को ही विश्व का मूल या मौलिक तत्त्व मानते थे। उन्होने दो या दो अधिक मौलिक तत्त्वो को कभी नही स्वीकारा । अत उन्हें हम आत्म अद्वैतवादी कह सकते हैं।
इस आत्म अद्वैत विचार धारा के समय मे एवं उससे भी पहले ई छान्दोग्य उपनिषद्,३,१९,१. छान्दो०६,२. । छान्दो० १,९,१;७,१२. ६ छान्दो०,१,११,५४,३,३,३,१५,४.