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द्वितीय अध्याय
अस्तित्व के विषय मे यह जान लेना अत्यावश्यक है । इस दृष्टि से ग्रात्मा के स्वरूप का विचार करने के पहले हम इस वात पर विचार करेंगे कि आत्मा के अस्तित्व के विषय में भारतीय चिन्तको की क्या दृष्टि रही है ।
भारतीय चिन्तनधारा मे ग्राज श्रमण एवं ब्राह्मणो का साहित्य उपलब्ध है । श्रमणो एवं ब्राह्मणो की वढती हुई प्राध्यात्मिक प्रवृत्ति एव ग्रध्यात्म चिन्तनधारा के प्रवाह मे ग्रात्म विरोधी चितको की विचारधारा एव साहित्य प्रवाहमान हो गया । ब्राह्मणो ने अनात्मवादियो के विषय मे प्रासंगिक रूप से जो कुछ कहा उसी का वेदो से ले कर उपनिपयो तक मे उल्लेख मिलता है । जैनागमो एव पिटको ( वौद्धग्रन्थो ) में भी विरोधी विचार धारा के खण्डन के रूप मे अनात्मवादियो के सिद्धांत का उल्लेख किया गया है । अनात्मवादियो केसिद्धांत की सही जानकारी देने वाला कोई ग्रन्थ नही है । दार्शनिकटीका ग्रन्थो से इतनी जानकारी मिलती है कि दार्शनिक ग्रंथो के रचना काल मे ग्रनात्मवादियो ने अपने विचार वृहस्पति सूत्र के रूप मे रखे थे । किन्तु दुर्भाग्य से आज वह ग्रथ भी उपलब्ध नही है । अत: आत्मा के सम्बध मे उनकी मान्यता क्या रही है, इस की जानकारी आत्मवादी विचारको के शास्त्रो एव दार्शनिक ग्रन्थो मे उल्लिखित आधार पर ही की जा सकती है ।
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अनात्मवादी चार्वाक यह नही कहता है कि आत्मा नहीं है, वह आत्मा का या उसकी चेतना शक्ति का अभाव नही मानता । 'उसको
मान्यता यह है कि एक या एकाधिक ( अनेक ) जितने भी पदार्थ या
तत्त्व हैं, उनमे ग्रात्मा नाम का कोई स्वतत्र या मौलिक तत्त्व नही है ।
कई तत्त्वो के सयोग से आत्मा मे चेतना शक्ति का प्रादुर्भाव होता है । वह उन्ही तत्त्वो का एक रूप है, उनसे भिन्न कोई स्वतत्र शक्ति नही है । इसी बात को लक्ष्य मे रखते हुए उद्योतकर ने न्यायवार्तिक मे कहा