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प्रथम अध्याय
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व्यक्ति के द्वारा किए जाने वाले कार्य का सकल्प मात्र नैगम नय है। जैसे कोई व्यक्ति वाजार मे कागज खरीदने जाता है, मार्ग मे उससे कोई पूछे कहा जा रहे हो, तो वह कहता है कि जरा लेख लिखना है। जबकि अभी तो वह कागज लाने जा रहा है, लेख लिखने मे तो अभी वहुत समय पडा है, उस बीच मे और कोई बाधा भी उपस्थित हो सकती है। फिर भी उस का वचन सत्य कहा जाता है । क्योकि लेख लिखने का सकल्प करके ही वह कागज खरीदने चला है । इस तरह सकल्प मात्र को भी नैगम नय कहते है।
संग्रह नय सग्रह नय सामान्य ग्राही होता है । वह वस्तु के अभेद स्वरूप को ग्रहण करता है। यह हम देख चुके है कि वस्तु भेदाभेद-सामान्यविशेष उभय रूप है । परन्तु, सग्रह नय सामान्य को ही अपना विषय बनाता है । यह नय पर और अपर के भेद से दो प्रकार का है । पर में वह अस्तित्व रूप से सभी पदार्थों का संग्रह कर लेता है। क्योकि जीव अजीव आदि जितने भी पदार्थ है, सवका अस्तित्व-सत्ता है। अत सत्ता रूप से वह सभी पदार्थो को एक मानता है $ । क्योकि सत्ता सव मे समान रूप से है। जैसे नीलादि आकार वाले सभी जान'ज्ञानसामान्य' के भेद है, उसी तरह जीवाजीवादि सभी पदार्थ सत् होने से सत्ता सामान्य की दृष्टि से एक है।
यह हम देख चुके हैं कि द्रव्य मे रहने वाली सत्ता पर सामान्य है । परन्तु द्रव्य मे स्थित जो द्रव्यत्व सामान्य है, वह अपर सामान्य है। इसी तरह गुण मे जो सत्ता है वह पर सामान्य है और जो गुणत्व
६ सामान्य मात्र नाही परामर्श सग्रह । -प्रमाण नय तत्त्वालोक ७,१३ ६ सर्वमेक सद्विशेषात्