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प्रथम अध्याय स्याद्वाद की आलोचना करते हुए इन विचारको ने जिन युक्तियो का आश्रय लिया है, उन का निर्देश करते हुए हम आगे की पक्तियो मे एक-एक का समाधान करेंगे।
१- कुछ विचारको का कहना है कि विधि और निषेध दो विरोधी धर्म हैं । अत वे एक ही वस्तु मे युगपत् नही पाए जा सकते । जैसे एक ही वस्तु मे नील और अनील वर्ण नहीं देखे जाते । अत यह कहना गलत है कि एक ही वस्तु मे भिन्न-अभिन्न, सदसत्, वाच्यावाच्य धर्म युगपत् पाए जाते हैं। इस तरह अन्य विरोधी धर्म भी एक वस्तु मे युगपत् नही पाए जा सकते । परन्तु स्याद्वाद इस बात को अभिव्यक्त करता है कि दो विरोधी धर्म एक ही वस्तु मे युगपत् रह सकते है । इसलिए वह दोषयुक्त है।
हमारा रात-दिन का अनुभव इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि एक ही वस्तु मे युगपत् दो विरोधी धर्म देखे जाते है। एक अपेक्षा से किसी द्रव्य मे एकत्व का आभास मिलता है तो दूसरी अपेक्षा से अनेकत्व का परिज्ञान भी होता है। यह सत्य है कि एकत्व अनेकत्व से भिन्न है, न एकत्व अनेकत्व बनता है और न अनेकत्व एकत्व बनता है। पर दोनो विरोधी धर्म एक वस्तु मे युगपत् पाये जाते है, इसमे विरोध जैसी वात नही । वौद्धो ने भी चित्रज्ञान माना है । जब एक ज्ञान मे चित्रवर्ण का प्रतिभास होता है और उस के होने में किसी तरह की बाधा एव विरोध नही है, तब फिर एक पदार्थ मे दो विरोधी धर्म की की सत्ता मानने में क्या आपत्ति है ? नैयायिक भी चित्रवर्ण को सत्ता को स्वीकार करते है। उनको मान्यतानुसार एक ही वस्त्र मे सकोच
६ द्रव्य की अपेक्षा से सुवर्ण में एकत्व है और वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, सस्थान इन पर्यायो की अपेक्षा से उसमें अनेकत्व है।