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..४५.............प्रथम अध्याय
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नयवाद प्रश्न- हम देखते हैं कि जैनों ने भी कई जगह एकांतवाद का सहारा लिया है । जैनों का मान्य नयवाद एकांतबाद का ही एक रूप है । क्योंकि हरेक नय एकांत दृष्टि से सोचता है । अतः फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि जैन एकांतवादी नहीं अनेकांतवादी है ?
___ नयवाद को एकान्तवाद समझना उसके यथार्थ ज्ञान का नही होना है ऐसा कहना चाहिए । नयवाद एकान्तवाद नहीं है। वह एकान्त दृष्टि से नही प्रत्युत, एक अपेक्षा से या एक दृष्टि से सोचता है और उस के एक दृष्टि से सोचने मे दूसरी दृष्टि का अस्तित्व भी उस के सामने बना रहता है । अत हम यो कह सकते हैं कि वह अपनी दृष्टि से विचार करता है, परन्तु दूसरी दृष्टि की सर्वथा उपेक्षा नही करता या दूसरी दृष्टि को सर्वथा मिथ्या नही कहता। अत नयवाद एकान्त नही अनेकान्त मूलक है। स्याद्वाद-अनेकान्तवाद और नयवाद मे कोई विरोध नही है।
नय और प्रमाण वस्तु का परिज्ञान दो तरह से होता है-- सकलादेश और विकलादेश से। जिस ज्ञान से वस्तु के पूरे रूप का परिवोध होता है उसे सकलादेश कहते हैं, आगमिक एव दार्शनिक भाषा मे उसे स्याद्वाद या प्रमाण कहते है। वस्तु मे स्थित अनेक धर्मो मे से जो एक धर्म की विवक्षा करता है, उसे विकलादेश कहते है और आगमिक भाषा मे नय कहते है। स्याद्वाद या प्रमाण वस्तु के सम्पूर्ण रूप को देखता है