________________
निरक्त कोश
साधारस्तावो।
जोर
१०२. अप्परिसावि (अपरिस्राविन्) न परिस्रवतीत्येवंशीलोऽपरिस्रावी । (व्यभा ३ टी प १८)
जो परिस्रवित नहीं होता/झरता नहीं, वह अपरिस्रावी है। १०३. अब्भ (अभ्र) अपो बिभ्रतीति अब्भ्राणि ।'
(राटी पृ ६५) जो जल को धारण करते हैं, वे अभ्र/बादल हैं। १०४. अब्भागमिय (अभ्यागमिक) अभिमुखं आगमिकं अभ्यागमिकं ।
(सूचू १ पृ.७५) जो सम्मुख आता है, वह अभ्यागमिक/आगंतुक है । १०५. अब्भासवत्ति (अभ्यासवर्तिन्) गुरोरभ्यासे समीपे वर्तते इत्येवंशीलोऽभ्यासवर्ती ।
(व्यभा १ टी प ३१) जो गुरु के पास रहता है, वह अभ्यासवर्ती है । १०६. अब्भुट्ठाण (अभ्युत्थान) आभिमुख्येनोत्थानमभ्युत्थानम्। (आवहाटी २ पृ २२)
सम्मुख आते हुए को देखकर उठना अभ्युत्थान है। १०७. अब्भोवगमिया (आभ्युपगमिकी)
या स्वयमभ्युपगम्यते, अभ्युपगमेन स्वयमङ्गीकारेण निर्वृत्ता आभ्युपगमिकी।
(प्रज्ञाटी प ५५७) जिसका स्वयं अभ्युपगमन/स्वीकरण किया जाता है, वह आभ्युपगमिकी (वेदना) है। १. 'अभ्र' का अन्य निरुक्तअभ्रतीति अभ्रं, आप्नोति सर्वा दिश इति वा अभ्रम् । (अचिपृ ३८)
जो गति करता है, वह अभ्र है। (अभ्र-गतौ) जो सब दिशाओं में व्याप्त होता है, वह अभ्र है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org