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निरुक्त कोश ४६७. खेत्तचार (क्षेत्रचार) यस्मिन् क्षेत्रे चारः क्रियते यावद्वा क्षेत्रं चर्यते स क्षेत्रनारः।
(आटी प २०२). जिस क्षेत्र में चार/गति की जाती है, वह क्षेत्रचार है ।
जितने क्षेत्र में चार/गति की जाती है, वह क्षेत्रचार है। ४६८. खेमंकर (क्षेमङ्कर) खेमं करोतीति खेमंकरः।।
(सूचू २ पृ ४६३) जो क्षेम/उपद्रव का शमन करता है, वह क्षेमंकर है। ४६६. खेय (खेद) खेदयत्यनेन कर्मेति खेदः।
(उशाटी प ४१६) जो कर्मसंस्कारों को खिन्न उत्पीडित करता है, वह खेद/ संयम है। ४७०. खेयण्ण (क्षेत्रज्ञ) खित्तं जाणाति खित्तण्णो।
(आचू पृ ७६) जो क्षेत्र/आत्मा को जानता है, वह क्षेत्रज्ञ आत्मज्ञ है। ४७१. खेयन्न (खेदज्ञ)
खेदः-अभ्यासस्तेन जानातीति खेदज्ञः।
जो खेद/अभ्यास से आत्मा को जानता है, वह खेदज्ञ है। खेदः-श्रमः संसारपर्यटनजनितस्तं जानातीति । (आटी प १३१)
जो खेद/जन्म-मरण के श्रम को जानता है, वह खेदज्ञ है। ४७२. खेल (क्ष्वेड/श्लेष्मन्) खे ललणाओ खेलो।
(जीतभा ८१६) जो खे/शून्य में घूमता है, वह खेल श्लेष्म है। १. क्षेमं वशवतिनां उपद्रवाभावं करोति क्षेमंकरः । (राटी पृ २४) २. क्षीयन्ते क्लेशा अनेन क्षेमम् । (अचि पृ १६) __ जो क्लेशों को क्षीण करता है, वह क्षेम कल्याण है। ३. श्लिष्यति हृदयादौ श्लेष्मा। (अचि पृ १०६)
जो श्लिष्ट होता है, वह श्लेष्म है ।
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