Book Title: Nirukta Kosh
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 361
________________ ३३० निरुक्त कोश १७४६. हिंसा (हिंसा) हिंस्यत इति हिंसा। (प्रटी प ६) जो हनन करती है, वह हिंसा है । १७५०. हियभासि (हितभाषिन्) हितं परिणामसुंदरं तद्भासते, इत्येवंशीलो हितभाषी । (व्यभा १ टी प २६) जो हितकारी भाषण करता है, वह हितभाषी है । १७५१. हिययग्गाहि (हृदयग्राहिन्) हृदयं गृह्णाति हृदये सम्यग्निवेशिते इत्येवंशीलो हृदयग्राही । (व्य भा १ टी प ३०) ___जो हृदय/हार्द को पकड़ लेता है, वह हृदयग्राही है । १७५२. हियाणुपेही (हितानुप्रेक्षिन्) हितं-पथ्यम् अनुप्रेक्षते-पर्यालोचयतीत्येवंशीलो हितानुप्रेक्षी। (उशाटी प ३८६) जो हित का अनुप्रेक्षण/पर्यालोचन करता है, वह हितानुप्रेक्षी १७५३. होयमाण (हीयमान) हीयमाणं पुव्वावत्थातो अधोऽधो हस्समाणं । (नंचू पृ १६) हीयते-तथाविधसामग्र्यभावतो हानिमुपगच्छतीति हीयमानम् । (नक १ टी पृ २०) जो हीन/क्षीण होता चला जाता है, वह हीयमान (अवधिज्ञान) है। ___ जो हानि/विनाश को प्राप्त होता है, वह हीयमान है। १७५४. हेउ (हेतु) हिनोतीति हेतुः । (उचू पृ १५५) हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुः । (दटी प ३३) जो अर्थ की ओर प्रेरित करता है, वह हेतु है । १. हिनोति व्याप्नोति कार्यमिति हेतुः । (शब्द ५ पृ ५४७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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